सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी निस्संदेह बहुत गंभीर है कि संविधान को लागू हुए पचहत्तर वर्ष हो गए, अब तो कम से कम पुलिस को अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ समझना चाहिए। हालांकि यह टिप्पणी कोई पहली बार नहीं आई है। इससे पहले भी कई मौकों पर वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहसें हो चुकी हैं, अदालतें पुलिस को नसीहत दे चुकी हैं, मगर शायद उस पर संजीदगी से अमल की जरूरत नहीं समझी गई। इसी का नतीजा है कि अब भी जब तब ऐसे मामले अदालतों में पहुंच जाते हैं, जिनसे किसी की भावना के आहत होने का आरोप लगता है, जबकि वास्तव में उनमें ऐसा कुछ नहीं होता।

चाहे वह फिल्मों के दृश्यों-संवादों, किसी राजनेता के बयानों या साहित्य के किसी अंश को लेकर भावनाएं आहत करने या भड़काने के आरोप लगते रहे हों या किसी ऐतिहासिक-मिथकीय प्रसंग को लेकर की गई टिप्पणी पर। कई बार तो कुछ बातों को लेकर आंदोलन तक उभारने की कोशिशें देखी गई हैं। ताजा मामला कांग्रेस नेता इमरान प्रतापगढ़ी की एक कविता को लेकर उठा, जब उन्होंने गुजरात के एक विवाह समारोह में उसे सुनाया और फिर सोशल मीडिया पर उसका अंश डाल दिया। उन पर आरोप लगा कि कविता में लोगों में हिंसा भड़काने का प्रयास किया गया है। वहां की पुलिस ने इस पर मुकदमा भी दर्ज कर लिया।

प्रतापगढ़ी के मामले में गुजरात पुलिस को हुआ होगा धोखा

साहित्य और कलाओं में अभिव्यक्त विचार कई बार प्रतीकों और बिंबों में छिपे होते हैं, इसलिए उनके सही अर्थ खोलने में दिक्कत आ सकती है। प्रतापगढ़ी के मामले में गुजरात पुलिस को भी इसी के चलते धोखा हुआ होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे स्पष्ट भी किया कि अनुवाद में गलती की वजह से यह भ्रम हुआ होगा। मगर आजकल जिस तरह चुनिंदा तरीके से किसी के बयानों से भावनाओं के आहत होने के आरोप कुछ अधिक लगने लगे हैं और उनमें से कई मामलों में कानूनी कार्रवाई भी कर दी जाती है, उससे संविधान में वर्णित अभिव्यक्ति की आजादी का संकल्प ही धुंधला पड़ता नजर आने लगता है।

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जबकि कई बार स्थितियां इसके उलट भी देखी जाती हैं, मगर उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। जबसे सोशल मीडिया का चलन बढ़ा है, देशभक्ति, धर्म और आस्था के नाम पर कुछ लोग कुछ भी कहते-बोलते देखे जाने लगे हैं। धर्म संसदों और कई सार्वजनिक सभाओं में संतों और राजनेताओं के आपत्तिजनक बयान देखे-सुने गए, मगर उनमें पुलिस का रवैया पक्षपातपूर्ण ही देखा गया। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है कि प्राथमिकी दर्ज करने से पहले पुलिस को कुछ तो संवेदनशीलता दिखानी होगी।

पुलिस स्वायत्त तरीके से काम नहीं करती

हालांकि यह छिपी बात नहीं है कि पुलिस स्वायत्त तरीके से काम नहीं करती। अनेक कार्रवाइयां उसे सत्ता पक्ष के दबाव में करनी पड़ती हैं। इसलिए विपक्षी दलों के मामले में अगर अभिव्यक्ति की आजादी के कानून को हाशिये पर धकेल दिया या नजरअंदाज कर दिया जाता है, तो हैरानी की बात नहीं। यह कम बड़ी विडंबना नहीं कि साहित्य और कलाओं में अभिव्यक्त विचारों की व्याख्या भी अदालतों को करनी पड़ रही है।

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सत्ताएं सदा से अपनी आलोचना से तल्ख हो जाती रही हैं, पर आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा कौन करेगा। पहला कर्तव्य तो पुलिस का ही बनता है कि वह उसकी सही-सही व्याख्या करे और फिर कानूनी कार्रवाई के बारे में सोचे। पर राजनीतिक उदारता के बगैर यह संभव नहीं जान पड़ता।