इस मसले पर लंबे समय से बहस होती रही है कि महज आरोप के आधार पर किसी व्यक्ति को अगर कई-कई महीने जेल में बंद रखा जाता है और बाद में अंतिम तौर पर उसे निर्दोष पाया जाता है तो उसे जेल में रखे गए वक्त को किस सजा के दायरे में माना जाएगा। अब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर इस मसले पर स्थिति साफ की है कि दोषी करार दिए जाने से पहले आरोपी को लंबे समय तक हिरासत में रखने को बिना सुनवाई के सजा बनाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
PMLA के जरिए लगाई गई पाबंदियों की तुलना में स्वतंत्रता का मूल अधिकार ‘श्रेष्ठ’
गौरतलब है कि तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी और बीआरएस नेता के कविता इस वर्ष मार्च महीने से जेल में थीं। सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय का दावा है कि वे दिल्ली आबकारी नीति से जुड़े कथित भ्रष्टाचार और धनशोधन के मामले में शामिल रही हैं। हालांकि उन्हें जमानत देते हुए अदालत ने यह भी कहा कि धनशोधन कानून के जरिए लगाई गई पाबंदियों की तुलना में स्वतंत्रता का मूल अधिकार ‘श्रेष्ठ’ है।
मनीष सिसोदिया को जमानत देते हुए भी अदालत ने सुनवाई में देरी की बात मानी थी
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के सामने यह कोई पहला मौका नहीं था जब इस मसले पर उसने अपना यह रुख स्पष्ट किया है। इससे पहले दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को जमानत देते हुए भी अदालत ने यह माना था कि उनके मामले में सुनवाई में देरी हो रही है और उन्हें ‘असीमित समय’ के लिए जेल में नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। के कविता को भी जमानत देते हए सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह अधिक समय तक जेल में रखने और सुनवाई में देरी को आधार बनाया है।
अगर किसी गंभीर अपराध के आरोप में कोई जांच एजंसी किसी को गिरफ्तार करती है तो इससे पहला संकेत यही उभरता है कि उसके पास आरोपी के खिलाफ पुख्ता सबूत या आधार होंगे। मगर ऐसे मामले अक्सर सामने आते हैं, जिनमें कई वजहों से आरोपी के खिलाफ सबूत पेश करने या सुनवाई का मामला लगातार टलता रहता है और आरोपों के कठघरे में आया व्यक्ति बिना दोषी साबित हुए लंबे समय तक जेल में बंद रहता है।
यह एक तरह से जांच एजंसियों की कार्यशैली से लेकर कानूनी स्थिति पर भी सवाल है कि आरोप, जांच, सुनवाई और सजा की वे कौन-सी कसौटियां हैं, जिनके तहत बिना दोषसिद्धि के किसी को कई-कई महीने तक कैद में रखा जा सकता है। इस तरह के बिंदुओं पर अदालत को खुद सीबीआइ और ईडी जैसी जांच एजंसियों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने का मौका मिलता है तो इसे कैसे देखा जाएगा? यों पिछले कुछ वर्षों से प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो पर भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकंजा कसने के नाम पर सत्ता पक्ष के इशारे पर काम करने के आरोप लगते रहे हैं।
अदालतों ने भी कई बार इन जांच एजंसियों की कार्यशैली को लेकर सवाल उठाए हैं। जहां तक आरोप के आधार पर जेल में रखने का मामला है, सर्वोच्च न्यायालय ने फिर इस सुस्थापित सिद्धांत को दोहराया है कि ‘जमानत नियम है, जेल अपवाद है’ और यह धनशोधन निवारण अधिनियम यानी पीएमएलए मामलों में भी लागू है। आरोप लगने और फैसला आने तक के संदर्भ में शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी बेहद अहम है कि आजादी से वंचित सिर्फ उन स्थापित कानूनी प्रक्रियाओं के जरिए ही किया जा सकता है जो वैध और तर्कसंगत हों।