इसमें कोई दोराय नहीं कि सभ्यता के विकास-क्रम में सहयोग और जरूरत के मुताबिक कुछ जीव-जंतु मनुष्य की आम जीवनशैली में घुलमिल गए और कई लोग आज कुछ पशु या पक्षियों को अपने साथ एक अभिन्न हिस्से के तौर पर देखते हैं। कुत्ता उनमें से एक है, जिसे आज बहुत सारे घरों में एक पालतू पशु के रूप में भी जगह मिली है। वहीं सड़कों-गलियों में घूमते ऐसे तमाम आवारा कुत्ते हैं, जो हमेशा तो नुकसान नहीं पहुंचाते, लेकिन हाल के वर्षों में ऐसी घटनाओं में तेज बढ़ोतरी हुई है, जिनमें उनकी वजह से खासतौर पर बच्चों और बुजुर्गों के सामने जोखिम पैदा हुआ है।

देश के अलग-अलग हिस्सों से अक्सर इस तरह की खबरें आती हैं, जिनमें घर के बाहर गली या चौराहे पर रहने वाले कुत्तों ने किसी बच्चे या फिर बुजुर्ग को नोच खाया या मार डाला। इसके अलावा, कुत्तों के काटने से होने वाले रेबीज के संक्रमण के भी मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। शायद ऐसी घटनाओं में खासी बढ़ोतरी को देखते हुए ही सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर स्वत: संज्ञान लिया और एक अहम आदेश जारी किया।

आवारा कुत्तों की समस्या लगातार गंभीर होती जा रही है

शीर्ष अदालत ने कुत्तों के काटने और रेबीज की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जताते हुए कहा कि आठ हफ्तों के भीतर दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सड़कों से सभी आवारा कुत्तों को हटाया जाए और उन्हें कुत्तों के लिए बने आश्रय गृहों में रखा जाए। निश्चित रूप से अदालत के इस आदेश के पीछे आवारा कुत्तों से उपजी समस्या के दिनोंदिन गंभीर शक्ल अख्तियार करते जाना और इंसानी जीवन के सामने बढ़ते जोखिम के प्रति चिंता है। मगर इस आदेश के साथ ही समाज में इस बात पर बहस खड़ी हो गई है कि कुत्तों के प्रति दयाभाव रखने वाले समाज में ज्यादा सख्त होना कितना उचित है। पशुओं या किसी भी जीव के प्रति संवेदनशील होना एक सहज मानवीय गुण है।

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यह भी समझा जा सकता है कि इंसानी बस्तियों के विस्तार के साथ-साथ जीव-जंतुओं के पर्यावास के क्षेत्र जैसे-जैसे सिकुड़ते गए हैं, वैसे-वैसे दूसरे पशुओं और पक्षियों का सहज जीवन बाधित हुआ है। ऐसे में आवारा कुत्तों के स्वभाव में भी बदलाव आया है और उनके भीतर आक्रामकता बढ़ी है। इस स्थिति का खमियाजा सीधे तौर पर आम लोगों को उठाना पड़ा है।

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दुनिया के कई देशों में आवारा कुत्तों और उनसे उपजी समस्या से निपटने के लिए कारगर उपाय किए गए हैं, तो भारत में इस पर एक व्यावहारिक नजरिया अपनाया जा सकता है। रेबीज से बचाव के लिए टीकाकरण से लेकर बंध्याकरण और कुत्तों के अनुकूल उचित माहौल के आश्रय-गृह बना कर कुछ हद तक इस समस्या से पार पाने की कोशिश की जा सकती है। दरअसल, समस्या को स्वीकार करना उसका हल निकालने की शुरुआत है।

सरकार ने इसी साल एक अप्रैल को लोकसभा में बताया था कि पिछले वर्ष देश भर में कुत्तों के काटने के करीब सैंतीस लाख पंद्रह हजार मामले सामने आए थे। अकेले दिल्ली में पिछले वर्ष रेबीज से चौवन मौतें दर्ज की गई थीं। देश भर में रेबीज से हर वर्ष अठारह से बीस हजार मौतें होती हैं। पशुओं से प्यार के बरक्स आवारा कुत्तों की वजह से उपजा जोखिम एक ऐसी हकीकत है, जिसमें यह सोचना जरूरी लगता है कि संवेदना का दायरा कितना विस्तृत हो कि न तो कुत्तों के प्रति इंसानी समाज को क्रूरता करने की जरूरत पड़े, न ही कुत्तों की वजह से बच्चे, बुजुर्गों या अन्य इंसानी जान को कोई खतरा पैदा हो।