आम चुनाव के पहले चरण का मतदान संपन्न हो गया। ज्यादातर इलाकों में तेज गर्मी के बावजूद लोगों में मतदान को लेकर उत्साह देखा गया। हालांकि कुछ जगहों पर हिंसक घटनाओं ने जरूर लोकतंत्र के इस उत्सव को बदरंग करने की कोशिश की, पर अच्छी बात है कि उनसे मतदाताओं और मतदान की प्रक्रिया पर बहुत नकारात्मक असर नहीं देखा गया।

मणिपुर लंबे समय से जातीय हिंसा की चपेट में है और वहां पहले से चुनाव के विरोध का स्वर उभर रहा था। इसलिए अगर कुछ मतदान केंद्रों पर उपद्रव की घटनाएं हुईं, तो इसकी वजहें समझी जा सकती हैं। वहां चुनाव कराना निर्वाचन आयोग के सामने बड़ी चुनौती थी। इसके अलावा छत्तीसगढ़ के बीजापुर में एक मतदान केंद्र के पास नक्सलियों ने विस्फोट किया।

यह भी कोई अनपेक्षित घटना नहीं थी, क्योंकि मतदान से दो दिन पहले ही वहां सुरक्षाबलों ने उनतीस नक्सलियों को मार गिराया था। उस घटना की प्रतिक्रिया में हमले की आशंका पहले से थी। हालांकि वहां भी कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ और मतदान की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न नहीं हुई। मगर पश्चिम बंगाल में जिस तरह की हिंसा देखी गई, वह जरूर चिंता पैदा करती है।

पश्चिम बंगाल के हर चुनाव में हिंसा की आशंका बनी रहती है। पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता छोटी-छोटी बातों को लेकर गुत्थमगुत्था होते और हिंसक घटनाएं करते देखे जाते रहे हैं, उसमें इस चुनाव में भी व्यापक हिंसा की आशंका पहले से जताई जा रही है। उसकी शुरुआत कूचबिहार में देखी गई।

वहां भाजपा के प्रत्याशी ने आरोप लगाया कि राज्य के सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ता लोगों को धमकाने और मतदान से रोकने का प्रयास करते रहे। यही आरोप तृणमूल कांग्रेस ने भी भाजपा कार्यकर्ताओं पर लगाए। उपद्रवियों की धर-पकड़ और हिंसा पर काबू पाने के क्रम में की गई तलाशी में कई बम भी बरामद किए गए। जाहिर है, हिंसा की तैयारियां वहां पहले से की गई थीं।

पश्चिम बंगाल के हर चुनाव में निर्वाचन आयोग अतिरिक्त रूप से सतर्क रहता है। इसलिए भी कूचबिहार में किसी बड़ी घटना की साजिशों को रोकने में कामयाबी मिल गई। मगर अभी वहां बाकी चरणों के चुनाव होने हैं, जिनमें हिंसा की आशंका बनी हुई है। यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में निर्वाचन आयोग का सहयोग करे।

यह ठीक है कि राजनीतिक दल अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं। मगर इसका लोकतांत्रिक तरीका होता है। ऐसा नहीं कि प्रतिद्वंद्वी दल के कार्यकर्ताओं पर हिंसक हमले करके उन्हें मतदान से रोका और अपने पक्ष में अधिक से अधिक मतदान कराने का प्रयास किया जाए।

अगर कोई राजनीतिक दल अपने कामकाज और सैद्धांतिक प्रभाव से मतदाता का विश्वास अर्जित नहीं कर पाता, तो उसे जीत का कोई नैतिक अधिकार नहीं रह जाता। मगर कुछ समय से धनबल और बाहुबल के जरिए चुनाव को अपने पक्ष में करने की अनैतिक कोशिशें बढ़ी हैं। लोकतंत्र मतदाता के भरोसे और विश्वास पर टिका होता है, अनैतिक तरीकों से मत अर्जित कर सत्ता में पहुंचे लोगों से लोकतंत्र की सुरक्षा की उम्मीद नहीं की जाती। जब तक राजनीतिक दल हिंसा के जरिए सत्ता में पहुंचने या बने रहने का रास्ता नहीं छोड़ेंगे, तब तक सही अर्थों में चुनाव लोकतंत्र का उत्सव नहीं बन पाएंगे।