देश के बारह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में गहन मतदाता पुनरीक्षण यानी एसआइआर को लेकर उठा विवाद लोकतांत्रिक व्यवस्था की सेहत के लिए ठीक नहीं माना जा रहा है। मतदाता सूचियों में संशोधन पहले भी होता रहा है, लेकिन एसआइआर की प्रक्रिया पर जो सवाल उठाए जा रहे हैं, उससे अब तीन मोर्चों पर संघर्ष शुरू होता नजर आ रहा है। पहला मानवीय स्तर पर, दूसरा कानूनी और तीसरा राजनीतिक नफा-नुकसान के तराजू पर भी इस प्रक्रिया को तौला जा रहा है।

सवाल है कि इस विवाद का हल कैसे होगा? इसको लेकर अदालत में भी मामले दायर किए गए हैं, लेकिन जाहिर है कि अदालती प्रक्रिया लंबी होती है और इसमें तत्काल फैसला आने की उम्मीद नहीं की जा सकती। बूथ स्तरीय अधिकारियों पर काम का अत्यधिक दबाव होने और कुछ के आत्महत्या कर लेने की खबरों के बीच निर्वाचन आयोग ने एसआइआर की प्रक्रिया की समय सीमा एक सप्ताह बढ़ाकर समस्या के निराकरण की दिशा में कदम बढ़ाया है, लेकिन क्या सात दिन का यह समय पर्याप्त है? क्या इससे जमीनी स्तर पर काम करने वाले अधिकारियों पर वास्तव में दबाव कम हो पाएगा?

एसआइआर की समय सीमा एक सप्ताह बढ़ाने का फैसला

एसआइआर को लेकर उठे विवाद में एक अफसोसजनक पहलू यह है कि बूथ स्तरीय अधिकारी निर्धारित समय सीमा में काम के दबाव को सहन नहीं कर पा रहे हैं। गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश से ऐसे अधिकारियों की मौतों और इस्तीफों की कई खबरें आ चुकी हैं। वहीं प्रशासन की सख्ती से कुछ राज्यों में इन अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी तक दर्ज की गई है और कुछ को निलंबित कर दिया गया है। दबाव की अति की इस स्थिति में कर्तव्य और सख्ती के बीच की रेखा धुंधली नजर आने लगी है।

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निर्वाचन आयोग ने पिछले दिनों प्रशासनिक अधिकारियों से वस्तुस्थिति पर रपट मांगी थी, जिसके बाद रविवार को आयोग ने एसआइआर की समय सीमा एक सप्ताह बढ़ाने का फैसला किया। आयोग की ओर से कहा गया कि एक सप्ताह का अतिरिक्त समय इसलिए दिया गया, ताकि बूथ स्तरीय अधिकारी पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए मृत या दूसरी जगह चले गए मतदाताओं का ब्योरा राजनीतिक दलों के साथ साझा कर सकें। इससे यही लगता है कि आयोग ने यह निर्णय प्रक्रिया में शामिल अधिकारियों पर काम के दबाव की वजह से नहीं लिया है।

विपक्षी दलों का अपना अलग है तर्क

एसआइआर को लेकर राजनीतिक मोर्चा भी खुल गया है। केंद्र में सत्तारूढ़ राजग का कहना है कि मतदाता सूची का सत्यापन जरूरी है, ताकि अवैध मतदाताओं का पता चल सके। वहीं विपक्षी दलों का तर्क है कि इस पूरी प्रक्रिया को एक सप्ताह के लिए बढ़ाने के फैसले से इस बात की पुष्टि होती है कि इसे बिना सोचे-समझे जल्दबाजी में शुरू किया गया है। इसके लिए कम कम से एक माह का समय और दिया जाना चाहिए। सवाल है कि इस महत्त्वपूर्ण काम को पूरा करने का जिम्मा जिन बूथ स्तरीय अधिकारियों को सौंपा गया है, अगर वही दबाव और तनाव का शिकार होकर जीवन पर जोखिम के दौर से गुजरने लगें, तो इसकी जवाबदेही किस पर है।

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कुछ नेताओं ने दबाव की वजह से हो रही ऐसी घटनाओं पर सवाल उठाया है, लेकिन इसका कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया। निर्वाचन आयोग अगर एसआइआर के व्यापक अभियान को सहजता से पूरा करना चाहता है, तो इसके लिए उसे इस काम में लगे लोगों की समस्याओं पर भी गौर करना चाहिए।