अनेक सामाजिक संस्थाएं और महिला संगठन अरसे से मुसलिम पर्सनल लॉ पर पुनर्विचार की जरूरत जताते रहे हैं; उनकी मांग रही है कि तीन तलाक और बहुविवाह पर रोक लगे। यह अच्छी बात है कि अब सर्वोच्च अदालत ने भी इस मसले पर बहस और कानून की समीक्षा की जरूरत रेखांकित की है। अदालत ने बुधवार को कहा कि मुसलिम समुदाय में तीन बार तलाक बोल कर वैवाहिक संबंध तोड़ना एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है जो एक बड़े तबके को प्रभावित करता है। अलबत्ता अदालत अभी सीधे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची है, पर यह जरूर कहा है कि पर्सनल लॉ को संवैधानिक ढांचे की कसौटी पर परखना होगा, साथ ही यह संकेत भी दिया है कि इस मामले को ज्यादा बड़े पीठ या संविधान पीठ के सुपुर्द किया जा सकता है।

अदालत को यह कहने का अवसर इसलिए आया कि तीन बार तलाक बोले जाने के विषय पर चार याचिकाओं के जरिए सवाल उठाए गए हैं। मामले की सुनवाई कर रहे पीठ ने उन सभी को पक्षकार बनने की इजाजत दे दी और केंद्र सरकार से डेढ़ महीने के भीतर अपना रुख बताने को कहा है। इस सब से जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट ने पर्सनल लॉ के मसले को अतीत की तुलना में कहीं अधिक गंभीरता से लिया है। यह शायद इसलिए भी हुआ कि खुद मुसलिम समाज के भीतर पर्सनल लॉ को लेकर बेचैनी दिखाई देती है; उनमें ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जो मानते हैं कि इसमें बदलाव वक्त का तकाजा है। मसलन, कई मुसलिम संगठनों की प्रतिनिधि संस्था आॅल इंडिया मुसलिम मजलिस-ए-मुशावरत ने दो महीने पहले अपील की थी कि आॅल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उलेमा मुसलिम पर्सनल लॉ में सुधार के लिए पहल करें। दूसरी ओर, अब भी अनेक मजहबी संगठन इस तरह के प्रयासों को अनावश्यक दखलंदाजी के रूप में देखते हैं।

इसके अलावा, सियासत का खेल अपना असर दिखाता रहता है; सांप्रदायिक संगठन, चाहे इधर के हों या उधर के, इसे महिला मामला रहने नहीं देते, अक्सर सांप्रदायिक मामला बना देते हैं। ऐसे में यह तर्क आमतौर पर सुनाई देता है कि सुधार की पहल मुसलिम समाज के भीतर से होनी चाहिए, न कि उसे बाहर से थोपा जाए। बेशक यह आदर्श स्थिति होगी। पर सवाल है कि जो दखलंदाजी की दलील देते हैं, वे खुद सुधार के पक्ष में माहौल बनाने के लिए क्या कर रहे हैं? सुधार का इंतजार अंतहीन नहीं हो सकता; उसे तर्कसंगत परिणति तक ले जाने की जरूरत है। मुसलिम पर्सनल लॉ सारी दुनिया में एक-सा नहीं है; अनेक देशों ने उसमें अहम फेरबदल किए हैं।

इस्लाम के गहन अध्येता असगर अली इंजीनियर मानते थे कि भारत में प्रचलित मुसलिम पर्सनल लॉ, दरअसल ‘ऐंग्लो मोहम्मडन लॉ’ है जो औपनिवेशिक हुकूमत के दौरान अंग्रेज जजों द्वारा दिए गए फैसलों पर आधारित है। कोई इस निष्कर्ष से सहमत हो या नहीं, किसी कानून को संवैधानिक ढांचे की कसौटी पर परखे जाने के औचित्य से कैसे इनकार कर सकता है? जब खुद इस्लामी कहे जाने वाले अनेक देश मुसिलम पर्सनल लॉ को बदल सकते हैं, तो भारत में ऐसी पहल क्यों नहीं हो सकती? तीन तलाक और बहुविवाह पर रोक लगाने की मांग वाली याचिकाओं को सर्वोच्च न्यायालय ने जिस गंभीरता से लिया है उससे बदलाव की उम्मीद जगी है। पर क्या हम राजनीतिक दलों से भी यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे अड़ंगा साबित नहीं होंगे