सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बांड संबंधी जानकारियां उपलब्ध कराने को लेकर भारतीय स्टेट बैंक की बहानेबाजियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। स्टेट बैंक ने चुनावी बांड संबंधी जानकारियां उपलब्ध कराने के लिए अदालत से तीस जून तक का समय मांगा था। उसका तर्क था कि बांड खरीदने वाले और राजनीतिक दलों के नामों का मिलान करने में उसे वक्त लग रहा है। चूंकि ये जानकारियां चुनावी बांड नियमों के मुताबिक सुरक्षा की दृष्टि से डिजिटल रूप में रखने के बजाय हस्तलिखित रूप में दो जगहों पर सीलबंद लिफाफे में रखी गई थीं, इसलिए हर दस्तावेज का मिलान करने में वक्त लगेगा। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी बहानेबाजी पर विराम लगा दिया।

SBI से मिली जानकारियां चुनाव आयोग 15 तक वेबसाइट पर डालेगा

उसने कहा कि आपसे मिलान करने को तो कहा ही नहीं गया था। आप तो केवल अपने लिफाफे खोलिए और चुनावी बांड से संबंधित जो भी जानकारियां आपके पास हैं, उन्हें सौंप दीजिए। नियम के मुताबिक आपने हर बांड खरीदने वाले के बारे में विवरण जमा कर रखे हैं, इसलिए कोई परेशानी वैसे भी नहीं होनी चाहिए। अदालत ने आज शाम तक सभी जानकारियां उपलब्ध कराने का आदेश दिया है। उन जानकारियों को निर्वाचन आयोग पंद्रह तारीख की शाम तक अपनी वेबसाइट पर डाल देगा। अगर अब भी स्टेट बैंक कोई बहानेबाजी करता है, तो उसके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई का रास्ता खुला है।

स्टेट बैंक के समय सीमा बढ़ाने की मांग से लोगों को हैरानी भी हुई

इस फैसले के बाद लगता नहीं कि स्टेट बैंक कोई बहाना बनाएगा। उसके वकील अदालत के समक्ष स्वीकार कर चुके हैं कि बंद लिफाफे में हर बांड का विवरण रखा हुआ है, समस्या केवल बांड के खरीदार और उसे भुनाने वाले राजनीतिक दलों के नामों के मिलान को लेकर है। इसलिए अब स्टेट बैंक के सामने इससे बचने का कोई रास्ता भी नहीं रह गया है। यों भी जब जानकारियां उपलब्ध कराने की अंतिम तारीख से दो दिन पहले स्टेट बैंक ने समय बढ़ाने की फरियाद की थी तो स्वाभाविक ही लोगों को हैरानी हुई थी।

लोग जानना चाहते हैं कि राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले कौन हैं

पूछा जाने लगा था कि आज जब बैंकों का सारा कामकाज डिजिटल तरीके से होने लगा है और एक बटन दबाने से सारी जानकारियां सामने आ जाती हैं, तब स्टेट बैंक को क्यों इतना वक्त चाहिए। फिर, जिस तरह उसने तीस जून का वक्त मांगा था, उससे लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि तब तक आम चुनाव खत्म हो जाएगा। लोग जानना चाहते हैं कि आखिर राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले लोग कौन हैं।

चुनावी चंदे के लिए बांड की व्यवस्था की गई थी, तभी इस नियम को लेकर सवाल उठने लगे थे कि आखिर इसे गोपनीय क्यों रखा जा रहा है। फिर चंदा देने की सीमा समाप्त कर दी गई थी। पहले कंपनियां अपने वार्षिक मुनाफे का केवल सात फीसद हिस्सा चुनावी चंदे के रूप में दे सकती थीं। इससे संदेह गहरा होने लगा था कि कहीं कुछ कंपनियां अपने फायदे के लिए राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में रिश्वत तो नहीं दे रही हैं।

फिर चुनावी चंदे को सूचनाधिकार कानून से बाहर रखा गया था, जिससे लोगों को चंदा देने वालों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाती थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पूरी प्रक्रिया को ही असंवैधानिक करार दे दिया। अदालत के आदेश के बाद वे नाम सामने आएंगे, तो लोगों का संदेह दूर हो सकेगा कि किन लोगों ने आखिर कितना चंदा दिया और कहीं उसके पीछे उनका कोई गलत इरादा तो नहीं था।