राजस्थान के नागौर में अपनी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के तीन दिवसीय सम्मेलन के बाद राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ ने ठीक ही फरमाया है कि संपन्न तबकों की आरक्षण की मांग वाजिब नहीं है। संघ का यह रुख कई वजहों से अहम है। एक तो यह कि कई राज्यों के साथ-साथ केंद्र में भी भाजपा की सरकार होने से नीति निर्धारण की प्रक्रिया में संघ की भूमिका बढ़ गई है। दूसरे, इस बयान के जरिए संघ ने आरक्षण की बाबत अपने बारे में बनी प्रचलित धारणा को तोड़ने की कोशिश की है। तीसरे, यह बयान ऐसे वक्त आया है जब हरियाणा में ओबीसी आरक्षण के लिए जाटों के उग्र आंदोलन को अभी एक महीना भी नहीं हुआ और वे एक बार फिर टकराव पर आमादा दिखते हैं।
भाजपा की हरियाणा सरकार ने आंदोलन के आगे झुकते हुए मांग पर विचार करने के लिए एक समिति गठित की थी और विधानसभा के अगले सत्र में विधेयक लाने का आश्वासन भी दिया था। समिति को इस महीने के अंत तक अपनी रिपोर्ट देनी है। क्या संघ के घोषित रुख का असर जाट समुदाय की मांग से निपटने के खट्टर सरकार के तौर-तरीके पर पड़ेगा? समिति किस नतीजे पर पहुंचेगी? संघ का ताजा बयान खुद संघ की अपनी सोच या छवि के लिहाज से भी अहम है। गौरतलब है कि बिहार चुनाव की गहमागहमी के दिनों में संघ प्रमुख मोहन भागवत का एक बयान खासे विवाद का विषय बना था। उन्होंने जातिगत आरक्षण की प्रासंगिकता पर सवाल उठाते हुए आरक्षण की अधिक सुसंगत नीति बनाने के लिए गैर-राजनीतिक विशेषज्ञों की समिति बनाने का सुझाव रखा था। उनके इस बयान पर मचे बवाल का नतीजा यह हुआ कि लालू प्रसाद व नीतीश कुमार के लिए पिछड़ों को गोलबंद करना और आसान हो गया, तथा सफाई देते-देते भाजपा हार गई।
बहरहाल, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के आरक्षण स्पष्ट और परिभाषित हैं। पिछड़े वर्ग के आरक्षण का दायरा जरूर जब-तब विवाद और झगड़े का विषय बन जाता है। वोट की राजनीति का इसमें अपना खेल रहता ही है। जाटों को केंद्रीय सेवाओं में ओबीसी आरक्षण देने के यूपीए सरकार के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय साल भर पहले खारिज कर चुका है। कोई समुदाय ओबीसी आरक्षण का हकदार है या नहीं, इसके लिए पहले राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की राय ली जानी चाहिए। पर चाहे जाट हों या गुजरात के पाटीदार या आंध्र के कापु, वे राजनीतिक दबाव डाल कर, कई बार लगता है कि राज्य-व्यवस्था को सांसत में डाल कर आरक्षण हासिल करना चाहते हैं।
इस तरह तो आरक्षण के लाभार्थियों की सूची का कोई अंत नहीं होगा। पर उनकी मांग को खारिज करते हुए भी उसके पीछे छिपे असंतोष को समझने की कोशिश होनी चाहिए। चाहे जाट हों, या पाटीदार या कापु या खेती-किसानी वाले परंपरागत रूप से सशक्त रहे अन्य समुदाय, वे कभी अपनी आत्मछवि पिछड़े के तौर नहीं देखते थे, पर खेती के घाटे का धंधा बनते जाने के कारण उनकी बड़ी संख्या आज खुद को ठगा हुआ महसूस करती है। फिर, सरकारी नौकरियों में बेहतर आय, समयबद्ध पदोन्नति और रोजगार की सुरक्षा रहती है, जो कि निजी क्षेत्र की साधारण नौकरियों और छोटे-मोटे स्वरोजगार में नहीं। इसलिए सरकारी नौकरियों के लिए भी मारामारी दिखती है और आरक्षण के लिए भी। पर आरक्षण सबके लिए नहीं हो सकता। इसलिए आरक्षण के नाम पर फूट पड़ने वाले असंतोष का समाधान यही है कि गैर-सरकारी में क्षेत्र में बेहतर तथा ज्यादा अवसर पैदा हों।
