यह सातवीं बार है, जब भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी मौद्रिक नीति में कोई बदलाव करने से परहेज किया है। उसने रेपो दर को 6.5 फीसद पर यथावत बनाए रखा है। ऐसा महंगाई पर काबू पाने के मकसद से किया गया है। रिजर्व बैंक ने कहा है कि चालू वित्तवर्ष में महंगाई की दर घट कर 4.5 फीसद पर आ जाएगी।
पिछले वर्ष इसके 5.4 फीसद रहने का अनुमान लगाया गया था। अब भी महंगाई काबू में नहीं आ रही। थोक और खुदरा महंगाई तथा विकास दर में कोई तार्किक संतुलन नजर नहीं आता। खुदरा वस्तुओं में फल और सब्जियों के दाम उस मौसम में भी ऊंचे देखे गए, जब बाजार में नई फसल की आवक बढ़ जाती है।
इस समय भी बाजार में आलू, प्याज, टमाटर जैसी रोजमर्रा इस्तेमाल की सब्जियों की कीमत बाईस से चालीस फीसद तक बढ़ी हुई है, जबकि इस वक्त इनकी नई फसल बाजार में आती है। दाल, चावल, आटे जैसी चीजों की कीमतें भी आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। ऐसे में रिजर्व बैंक रेपो दर में बदलाव करके किसी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहता था।
रेपो दर ऊंची रहने पर बाजार में पूंजी का प्रवाह काबू में रहता है, इस तरह महंगाई पर भी अंकुश होता है। मगर इससे घर, वाहन, कारोबार आदि के लिए कर्ज लेने वालों पर ब्याज का बोझ बढ़ जाता है। उद्योग जगत लंबे समय से उम्मीद लगाए बैठा है कि रेपो दर में कमी आए, तो उन्हें कारोबार के लिए कर्ज पर कम बोझ उठाना पड़े।
मगर महंगाई की मार ने रिजर्व बैंक को ऐसा कोई फैसला करने से रोक रखा है। मगर केवल रेपो दर ऊंची रख कर महंगाई पर काबू पाने का फार्मूला कहां तक कारगर साबित होगा, कहना मुश्किल है। महंगाई के लिए जिम्मेदार पेट्रोल-डीजल की कीमतें, खेती में बढ़ती लागत, उद्योगों में उत्पादन लागत आदि पर काबू पाए बिना महंगाई पर लगाम कसना कठिन ही बना रहेगा। फिर, लोगों की क्रयशक्ति घटने से महंगाई की मार आम लोगों पर बहुत भारी पड़ रही है। रेपो दर के अलावा महंगाई के कुचक्र से बाहर निकलने का व्यावहारिक रास्ता निकालना होगा।
