मार्च महीने में खुदरा महंगाई का रुख कुछ नरमी लिए दर्ज हुआ। निस्संदेह यह राहत की बात है। फरवरी में खुदरा महंगाई की दर 5.09 फीसद थी, जो मार्च में घट कर 4.85 फीसद पर आ गई। यह पिछले दस महीनों का सबसे निचला स्तर है।

हालांकि रिजर्व बैंक लगातार दावा करता रहा है कि वह महंगाई पर बहुत जल्दी काबू पा लेगा और इसे चार फीसद पर स्थिर कर सकेगा। स्वाभाविक ही ताजा आंकड़े से रिजर्व बैंक ने कुछ राहत की सांस ली होगी। मगर दावा करना मुश्किल है कि आगे भी महंगाई का रुख नीचे की तरफ ही बना रहेगा।

खुदरा महंगाई की दर में आई ताजा कमी की बड़ी वजह तेल, गैस और बिजली की कीमतों का घटना है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिस तरह कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव आ रहा है, उसमें महंगाई को लेकर कोई अंतिम दावा करना कठिन है।

खुदरा महंगाई में खाद्य वस्तुओं की कीमतों में कोई खास अंतर दर्ज नहीं हुआ है। फरवरी में खाद्य वस्तुओं की महंगाई 7.8 फीसद दर्ज हुई थी, जो मार्च में घट कर 7.7 हो गई। सबसे चिंता की बात है कि रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाले मोटे अनाज, दूध, अंडे वगैरह की कीमतों में कोई कमी दर्ज नहीं हुई है। आखिर आम लोगों का वास्ता तो इन्हीं चीजों से होता है।

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महंगाई का अंतर भी चिंता की एक बड़ी वजह है। ग्रामीण क्षेत्रों में खुदरा महंगाई दर 5.45 फीसद है, जबकि शहरी क्षेत्रों में 4.14 फीसद है। यह 1.31 फीसद का अंतर पिछले तेईस महीनों का सबसे ऊंचा स्तर है। यानी ग्रामीण लोगों पर महंगाई की मार शहरी लोगों की अपेक्षा अधिक पड़ रही है, जबकि क्रयशक्ति की दृष्टि से ग्रामीण लोगों की क्षमता शहरी लोगों की अपेक्षा कम होती है।

उत्पादन के मामले में तेईस प्रमुख विनिर्माण उद्योगों में से दस का उत्पादन घटा है। रिजर्व बैंक अपनी रेपो दर को यथावत बनाए रख कर महंगाई के मोर्चे पर कामयाबी हासिल करने का प्रयास कर रहा है, मगर जिस तरह अनेक स्तरों पर विसंगतियां और असंतुलन नजर आ रहा है, उसमें महंगाई पर काबू पाना उसके लिए चुनौती बना हुआ है।

एक तरफ बड़ी कारों और भवनों की बिक्री में तेजी दर्ज हो रही है, तो दूसरी तरफ औद्योगिक इकाइयों के उत्पादन में कमी देखी जा रही है। जिस मौसम में अनाज, फल और सब्जियों की बाजार में आवक तेज होती है, उसमें भी उनकी कीमतें ऊपर बनी रहती हैं।

महंगाई दरअसल, अर्थव्यवस्था में असंतुलन का संकेतक होती है। भले विकास दर के सात फीसद पर रहने के अनुमान और भारत के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के आंकड़ों से देश में समृद्धि के संकेत मिलते हों, पर हकीकत यह है कि खुद सरकार के मुताबिक करीब बयासी करोड़ लोग मुफ्त के राशन पर निर्भर हैं। रोजगार के मामले में स्थिति निरंतर भयावह होती जा रही है।

सामान्य बोध यही है कि रोजगार के नए अवसर सृजित होते हैं तो लोगों की क्रयशक्ति बढ़ती है और उससे बाजार में पूंजी का प्रवाह तेज होता है। मगर इस दिशा में कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठाए जा पा रहे हैं। चुनाव के मद्देनजर ईंधन की कीमतों में कमी करने से महंगाई का रुख जरूर कुछ नीचे की तरफ हो गया है, पर यह स्थायी और व्यावहारिक समाधान नहीं है। बुनियादी कमजोरियों को दूर किए बिना शायद ही जमीन पर बेहतरी नजर आए।