किसी भी मौके पर जब पुलिस के हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती है, तब उम्मीद की जाती है कि वह बिना किसी भेदभाव के, पक्षपात किए या दबाव में आए बगैर पीड़ित पक्ष के हक में अपने अधिकारों का उपयोग करेगी। इस क्रम में किसी भी हाल में उसके ऊपर धर्म या जाति से जुड़े आग्रह हावी नहीं होंगे और वह सिर्फ न्याय सुनिश्चित करने के लिए काम करेगी। मगर इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि पुलिस महकमे से जुड़े लोग कई बार अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते।
ऐसे मामले अक्सर सामने आते रहे हैं, जिनमें पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठे या किसी खास तबके या समूह के खिलाफ पक्षपात करने के आरोप भी लगे। जबकि कानून की वर्दी पहनने के साथ ही व्यक्ति एक दायित्व से बंध जाता है कि उसे हर हाल में न्याय के पक्ष में खड़ा होना है और पीड़ितों को इंसाफ दिलाने में कानून की सीमा में सभी स्तर पर सहयोग करना है। अफसोस की बात है कि इस तरह के जिन दायित्वों को याद रखना खुद पुलिस महकमे और उससे जुड़े लोगों की अपनी जिम्मेदारी होनी चाहिए, उसके लिए कई बार अदालतों को हस्तक्षेप करना और याद दिलाना पड़ता है।
अकोला में 2023 के दंगे मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट का निर्देश
गौरतलब है कि महाराष्ट्र के अकोला में 2023 में हुए दंगे के एक मामले की सुनवाई के दौरान गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में पुलिस को नसीहत दी कि निष्पक्षता ही उसका असली दायित्व है। अदालत ने कहा कि जब एक बार कोई व्यक्ति पुलिस की वर्दी पहन लेता है, तो उसे अपने निजी झुकाव, धर्म, जाति या किसी अन्य प्रकार के पूर्वाग्रह से ऊपर उठ कर कानून के मुताबिक अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। उसे अपने पद और अपनी वर्दी से जुड़े कर्तव्य के प्रति पूरी निष्ठा और ईमानदारी से काम करना चाहिए।
हालांकि ये अपेक्षाएं पुलिस महकमे से जुड़े किसी भी अधिकारी-कर्मचारी के काम करने और सोचने के तरीके में बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के शामिल होनी चाहिए, निष्पक्षता और न्याय के पक्ष में काम करना उसके व्यक्तित्व और विचार का स्वाभाविक हिस्सा होना चाहिए। मगर पहले तो किसी आम नागरिक के सामने पुलिस पर अपने खिलाफ पूर्वाग्रह बरतने और पक्षपात करने का आरोप लगाने की नौबत आती है, फिर शीर्ष अदालत को यह बताना पड़ता है कि पुलिस का काम किसी धर्म या जाति पर आधारित भेदभाव के बिना कानून के मुताबिक निष्पक्ष जांच करना है।
सांप्रदायिक दंगों के दौरान कार्रवाई और जांच के संदर्भ में पुलिस पर धार्मिक पहचान के आधार पर पक्षपात बरतने के आरोप अक्सर सामने आए हैं। कमजोर या वंचित जातियों के लोगों के खिलाफ अपराधों के मामले में भी पुलिस पर रसूख वाले वर्गों के पक्ष में काम करने के आरोप लगते रहे हैं।
इस लिहाज से देखें तो अकोला दंगे से संबंधित मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह महाराष्ट्र सरकार को विशेष जांच दल गठित करने और उसमें हिंदू तथा मुसलिम समुदायों के अधिकारियों को शामिल करने का निर्देश दिया है, वह एक तरह से पुलिस की कार्यशैली में छिपे पूर्वाग्रहों को उजागर करता है। ऐसा पहली बार हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट ने सांप्रदायिक दंगे की जांच के लिए दोनों समुदायों के अफसरों को शामिल करने का आदेश दिया है।
यह याद रखने की जरूरत है कि वर्दी पहनते ही किसी व्यक्ति के साथ यह दायित्व अनिवार्य रूप से जुड़ जाता है कि कानून और न्याय के पक्ष में उसे अपने भीतर के जातिगत या धार्मिक पूर्वाग्रहों और बाहर के दबावों से मुक्त होकर काम करना है।