पिछले हफ्ते केंद्र सरकार ने अर्थव्यवस्था के पंद्रह क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने के साथ-साथ उनसे संबंधित नियम-कायदे और आसान बनाने की घोषणा की थी। स्वाभाविक ही इसे आर्थिक सुधार के एक बड़े कदम के तौर पर देखा गया, क्योंकि 1991 से उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद यह पहला मौका था जब एक ही दिन में इतने अधिक क्षेत्रों में एफडीआइ की सीमा बढ़ा दी गई। इससे पहले एक-एक करके तथा कुछ अंतराल के साथ एफडीआइ के दरवाजे खोले गए थे। बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति ने निर्यातकों के लिए रियायत सहित ऐसे कई कदम उठाए जो आर्थिक मोर्चे पर सरकार की सक्रियता जाहिर करते हैं। इससे सरकार ने यह संदेश देना चाहा है कि वह आर्थिक सुधारों को लेकर गंभीर है।
बिहार चुनाव के दौरान खुद केंद्र के एक-दो मंत्रियों ने कहा था कि नतीजे कहीं ऐसे न हों कि आर्थिक सुधारों को झटका लगे। पर भाजपा की जबर्दस्त पराजय के बावजूद एफडीआइ की सीमा बढ़ाने और बुधवार को लिए गए निर्णयों से जाहिर है कि उदारीकरण के संदर्भ में बिहार चुनावों को लेकर जताई गई आशंका निराधार थी। ताजा फैसलों के पीछे बिहार के चुनावी नतीजों से आर्थिक सुधार के एजेंडे पर कोई फर्क न पड़ने का संदेश देने का इरादा तो रहा ही होगा, उद्यमियों की अपेक्षाओं का दबाव भी हो सकता है। निर्यात में लगातार ग्यारहवें महीने गिरावट दर्ज हुई है। 2008 की मंदी के समय भी निर्यात में इतने लंबे समय तक गिरावट का सिलसिला नहीं चला था। मजे की बात यह है कि आयात भी कम हुआ है। इसके फलस्वरूप व्यापार घाटे में कमी आई है।
व्यापार घाटा कम होना अच्छी बात है, पर वास्तव में यह सकारात्मक तब माना जाता जब निर्यात बढ़ने का नतीजा होता। जानकार मानते हैं कि यह तो विश्व-अर्थव्यवस्था में नरमी का संकेत है। जी-20 के शिखर सम्मेलन में भी मंदी जैसे हालात की चिंता छाई रही। ऐसे में निर्यात में मजबूती कैसे दिख सकती है? लिहाजा, निर्यातकों को प्रोत्साहन के तौर पर सरकार ने तीन फीसद ब्याज सबसिडी देने की घोषणा की है। निर्यातकों को ब्याज में यह छूट सामान ढुलाई से पहले और बाद की, दोनों स्थितियों में मिलेगी। जिन सड़क परियोजनाओं में देरी के लिए डेवलपर जिम्मेवार नहीं हैं उनमें उन्हें मुआवजा दिया जाएगा। इस तजवीज से अटकी पड़ी परियोजनाओं की राह खुलने की उम्मीद की जा रही है। इस साल बजट में विनिवेश और रणनीतिक बिक्री के जरिए उनहत्तर हजार करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य रखा गया था, पर इसका आधा भी हासिल नहीं हो पाया है।
करीब अस्सी फीसद सरकारी हिस्सेदारी वाली कंपनी कोल इंडिया की दस फीसद हिस्सेदारी बेचना एक हिसाब से आर्थिक सुधार का कदम भले माना जाए, पर यह बजट में घोषित लक्ष्य को पाने में नाकामी का नतीजा भी है। देश में जहाज निर्माण और मरम्मत की सबसे बड़ी इकाई कोचीन शिपयार्ड में दस फीसद हिस्सेदारी की बिक्री के लिए आरंभिक सार्वजनिक निर्गम (आइपीओ) लाने की हरी झंडी भी मिल गई है। इन फैसलों से बाजार में गतिशीलता आने की उम्मीद की जा रही है। पर उदारीकरण के ढाई दशक बाद भी इसके लिए सरकारी निवेश का मुंह जोहने की स्थिति क्यों है!