किसी भी देश में आम लोगों के स्वास्थ्य में सुधार के मकसद से चलाए जाने वाले कार्यक्रमों में अगर बच्चों और महिलाओं की सेहत में अपेक्षित बेहतरी नहीं आती है तो उसका सीधा और नकारात्मक असर अन्य कई क्षेत्रों पर पड़ता है। विश्व भर में और खासकर विकासशील या फिर गरीब देशों में अपने स्तर पर और विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की सहायता से स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार के लिए कार्यक्रम चलाए जाते हैं। लेकिन अगर इनके लाभ के लिहाज से देखें तो अभी इस दिशा में ठोस कामयाबी मिलनी बाकी है।

यों दुनिया के ज्यादातर देशों में महिलाओं के बीच रक्ताल्पता की समस्या पहले से ही जटिल रही है। लेकिन ‘द लांसेट हेमेटोलाजी’ में प्रकाशित ताजा शोध अध्ययन में यह तथ्य एक बार फिर उभर कर सामने आया है कि सन 2021 में रक्ताल्पता की शिकार महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले दोगुनी रही। बल्कि महिलाओं की प्रजनन आयु के दौरान यह दर तीन गुना ज्यादा थी। सिर्फ इस तथ्य से अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का हल निकालने के क्रम में जो भी उपाय किए जाते हैं, उनके लाभ के दायरे से महिलाएं कैसे एक तरह से बाहर ही रह जाती हैं।

वैश्विक स्तर पर हुए प्रयासों से बीमारी की समस्या में आई कमी

हालांकि वैश्विक स्तर पर हुए प्रयासों के बाद दुनिया भर में रक्ताल्पता की समस्या में कमी आई है, लेकिन इसे संतोषजनक नहीं माना जा सकता। ‘लांसेट’ के अध्ययन में यह पाया गया कि रक्ताल्पता की कमी से उबरने के मामले में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं और बच्चों के बीच गति काफी धीमी रही। यह एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है, जिससे यह पता चलता है कि अगर किसी समस्या से जूझने और उसे दूर करने के लिए किन्हीं दो तबकों को लक्ष्य बनाया जाता है तो समान उपायों के बावजूद एक तबका काफी पीछे रह जा सकता है।

इस लिहाज से देखें तो शोध अध्ययन का यह पहलू अहम है कि किसी महिला या बच्चे के शरीर में अगर खून की कमी है तो उसका इलाज करने के समांतर ही इस बात पर ध्यान दिया जाए कि वह किन कारणों से है और उसे कैसे दूर किया जाए। दरअसल, रक्ताल्पता के मामले में अगर यह स्थिति है तो इसकी जड़ें गहरे पैठी हुई हैं।

यह छिपा नहीं है कि विश्व भर में और खासतौर पर तीसरी दुनिया के देशों में बच्चों के पालन-पोषण के क्रम में विभाजित लैंगिक दृष्टि किस कदर हावी होती है। बचपन से ही लड़के और लड़कियों के बीच खानपान से लेकर देखभाल तक के स्तर पर जिस तरह का अघोषित बंटवारा होता है, उसका सीधा असर महिलाओं और बच्चों के शारीरिक विकास पर पड़ता है।

कई तरह की कमियों से जूझते हुए और पर्याप्त पोषण के अभाव की वजह से कमजोर सेहत की स्थिति में जब रक्ताल्पता या सेहत संबंधी या अन्य दिक्कतों को दूर करने के लिए अलग से प्रयास किए जाते हैं, तो किसी महिला या बच्चे का शरीर भी धीमी गति से प्रतिक्रिया कर सकता है।

इसके अलावा, महिलाओं के बीच माहवारी की वजह से जो खून की अतिरिक्त क्षति होती है, उसी मुताबिक उन्हें अतिरिक्त पोषण की भी जरूरत पड़ती है। मगर समय रहते इस पहलू पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है और बाद में अगर विशेष उपाय किए भी जाते हैं तो महिलाओं की सेहत में सुधार की गति धीमी होती है। इसलिए रक्ताल्पता की समस्या पर काबू पाने के क्रम में ज्यादा जरूरी यह है कि इसके स्रोत को खत्म किया जाए। अगर बचपन से ही पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की सेहत की जरूरत को ध्यान में रख कर पोषण और संतुलित आहार का स्वरूप समान स्तर पर तय किया जाए, तब इस समस्या से पार पाना शायद ज्यादा आसान होगा।