संचार माध्यमों के विस्तार, पत्रों या दूसरी डाक सामग्रियों को अपने गंतव्य तक पहुंचाने के काम में डाक विभाग भले पिछड़ रहा हो, सरकारी डाकिये का काम बहुत कम हो गया हो, लेकिन सरकार की एक नई सूझ अमल में आई तो डाकिया अब गंगाजल लेकर लोगों के घरों पर पहुंचाते दिख सकते हैं। सरकार का मानना है कि गंगा का शुद्ध पानी देश की सांस्कृतिक जरूरत है और लोग अपनी आस्था के निर्वाह के लिए इसे लाने कई बार बहुत दूर भी चले जाते हैं। इसके मद्देनजर सरकार ने गंगाजल को उन तमाम घरों तक पहुंचाने की योजना बनाई है, जिन्हें किसी धार्मिक गतिविधि या अनुष्ठान के लिए इसकी जरूरत पड़ती है। गंगाजल पाने के लिए लोगों को कहीं जाने का कष्ट नहीं उठाना होगा, वे घर बैठे ई-वाणिज्य मंचों का इस्तेमाल करके आॅर्डर दर्ज करा सकते हैं और पोस्टमैन उनके दरवाजे पर गंगाजल पहुंचाएंगे।

दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद का कहना है कि उनके पास डाक विभाग के जरिए गंगाजल की आपूर्ति के लिए प्रार्थनाएं आती रहती हैं। इसलिए उन्होंने डाक विभाग को निर्देश दिया है कि हरिद्वार और ऋषिकेश से शुद्ध गंगाजल पहुंचाने के लिए ई-वाणिज्य मंचों का प्रयोग शुरू किया जाए। पहली नजर में इस योजना में डाक विभाग को शामिल करने की बात इसे मजबूत करने के लिहाज से काफी आकर्षक लगती है। लेकिन कूरियर कंपनियों के बीच प्रतियोगिता के दौर में डाक विभाग जिस तरह अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद से गुजर रहा है, उसमें इसके काम में गंगाजल पहुंचाने की योजना को जोड़ना इस महकमे के लिए कितना सुविधाजनक और फायदेमंद होगा! क्या इससे डाक विभाग को फिर से पहले की तरह सक्रिय करने में मदद मिलेगी? अगर किसी सांस्कृतिक आयोजन के लिए शुद्ध गंगाजल अनिवार्य है तो हजारों किलोमीटर लंबी धारा में वह शुद्धता हरिद्वार या ऋषिकेश में ही क्यों हो! यह शुद्धता हर जगह मौजूद गंगा की क्यों न हो? लेकिन हजारों करोड़ रुपए बहाने और गंगा कार्ययोजना जैसे अनेक बड़े कार्यक्रमों के बावजूद गंगा की दशा किसी से छिपी नहीं है। विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में इसकी गिनती होती है।

जिन्हें अपनी आस्था के निर्वाह के लिए गंगाजल की जरूरत होती है, वे इसके लिए सुविधा होने पर भले ऋषिकेश या हरिद्वार चले जाएं, लेकिन आसपास मिलने वाला गंगा का पानी उनके लिए वही महत्त्व रखता है। ऐसे में शुद्धता या पवित्रता की गारंटी के साथ सैकड़ों या हजारों किलोमीटर दूर किसी घर में गंगाजल पहुंचाने का दावा करके क्या सरकार आस्था से जुड़ी भावनाओं को भुनाने के चक्कर में है? फिर किसी एक समुदाय को ध्यान में रख कर चलाई जाने वाली इस योजना के प्रति दूसरे धार्मिक समुदायों के बीच किस तरह की प्रतिक्रिया होगी! क्या ऐसे सवाल नहीं उठेंगे कि अब भाजपा सरकार ने अपनी राजनीतिक धारा के विस्तार के लिए सरकारी महकमों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है? विडंबना यह है कि जिस समय देश में सूखे की समस्या का सामना करती एक बड़ी आबादी पीने के पानी तक के लिए तरस रही है, सरकार का ध्यान पेयजल मुहैया कराने और पानी का संकट दूर करने से ज्यादा गंगाजल से जुड़ी भावनाएं भुनाने पर है। क्या इसी तरह से सबका साथ सबका विकास के नारे पर अमल होगा!