गुजरात के एक मेडिकल कालेज में रैगिंग की वजह से प्रथम वर्ष के एक छात्र की मौत ने समाज के हर संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर दिया है। चिकित्सा की पढ़ाई कर रहे पीड़ित छात्र की मौत कोई सामान्य घटना नहीं है। परिचय के नाम पर उसे और अन्य कनिष्ठ विद्यार्थियों को जिस तरह गालियां दी गईं और शारीरिक तथा मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया, यह परपीड़ा की पराकाष्ठा है। इस अमानवीय घटना से फिर यही साबित हुआ कि छात्रावासों और शैक्षणिक परिसरों में रैगिंग रोकने के ठोस उपाय नहीं किए गए और सुप्रीम कोर्ट तक के कड़े दिशा-निर्देशों को अब भी हल्के रूप में लिया जा रहा है।

कार्रवाई तभी होती है जब घटना तूल पकड़ लेती है

ऐसे ज्यादातर मामलों में कार्रवाई की कवायद तब शुरू होती है, जब इस तरह की कोई घटना तूल पकड़ लेती है। हालांकि इस मामले में त्वरित कार्रवाई हुई और पंद्रह छात्रों पर गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज कर लिया गया। उन्हें कालेज से निलंबित भी कर दिया गया। मगर पीड़ित छात्र के परिवार को अगर न्याय मिला भी, तो उनके घर का चिराग लौट कर तो नहीं आएगा। कायदे से अगर किसी संस्थान में ऐसा होता है तो इसके लिए उसके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए।

शिक्षण संस्थानों में रैगिंग की आड़ में जिस तरह हिंसक मनोवृत्ति और कुंठा की मानसिकता अपनी जड़ें जमा चुकी है, उस पर कानूनी पहलू से ही नहीं, समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी देखने की जरूरत है। आरोपी छात्र भी समाज से ही आते हैं। यह सोचने का विषय है कि आखिर उनमें किसी को शारीरिक और मानसिक पीड़ा पहुंचाने की प्रवृत्ति कहां से आई है। यह कैसी कुंठित मानसिकता है, जिसमें किसी को पीड़ा पहुंचा कर आनंद की अनभूति होती है?

स्कूल की पढ़ाई खत्म कर कालेज आए नवोदित विद्यार्थियों से अभद्र व्यवहार से आगे बढ़ कर उनसे अमानवीयता दिखाने का अर्थ है कि युवाओं के एक वर्ग में सामाजिक शिष्टाचार तो दूर, मानवीय संवेदना के बीज तक नहीं डाले गए। यह जिम्मेदारी आखिर किसकी थी? अब रैगिंग के जरिए अगर ये अपनी कुंठा की हिंसक अभिव्यक्ति करते हैं तो जाहिर है कि समाज और शिक्षण संस्थानों से कहीं चूक हुई है। उच्च शिक्षा हासिल करने गए छात्र ही अगर अपराधियों की तरह का बर्ताव करेंगे तो भविष्य में उनसे क्या उम्मीद की जाएगी।