उत्तर प्रदेश के रायबरेली में एक दलित व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर देने की घटना भयावह और मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देने वाली है। इस पूरे प्रकरण में जिस तरह की मानसिकता सामने आई है, उसे किसी भी सभ्य समाज में संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा। भले ही इस मामले में मुख्य आरोपियों को गिरफ्तार कर लापरवाही बरतने वाले पुलिस कर्मियों को निलंबित कर दिया गया है, लेकिन सरकार के सामाजिक समानता के दावों और राज्य की कानून व्यवस्था पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
दावा किया जा रहा है कि घटना के वक्त कुछ पुलिसकर्मी मौके पर मौजूद थे। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि पुलिस की मौजूदगी में इस वारदात को कैसे अंजाम दिया गया? क्या वजह रही कि आरोपियों को पुलिस और कानून का जरा भी खौफ नहीं रहा? क्या अपराध पर काबू पाने के सरकारी दावों की हकीकत यही है?
पुलिस के मुताबिक, जिस व्यक्ति की बर्बर तरीके से हत्या की गई, वह घटना वाली रात अपनी पत्नी और बेटी से मिलने के लिए पैदल ससुराल जा रहा था। इसी दौरान स्थानीय लोगों ने उसे चोर समझ कर पकड़ लिया। जब वह लोगों के सवालों का जवाब ठीक से नहीं दे पाया तो बर्बरता से पिटाई करने के बाद उसे रेलवे स्टेशन तक घसीटकर ले जाया गया और गंभीर हालत में वहीं छोड़ दिया गया, जिस कारण उसकी मौत हो गई।
ऐसे में सवाल है कि अगर स्थानीय लोगों को उस व्यक्ति पर कोई संदेह था, तो उसे पकड़कर पुलिस के हवाले क्यों नहीं किया गया? कानून अपने हाथ में लेकर ऐसी बर्बरता करने का अधिकार उन्हें किसने दिया? और अगर पुलिसकर्मी घटनास्थल पर मौजूद थे, तो वे मूकदर्शक बनकर क्यों खड़े रहे?
यह घटना राज्य सरकार के उस दावे को भी झुठलाती नजर आती है कि प्रदेश में अब कानून का राज है। इस राज में समाज के दमित-वंचित तबके के लोगों की क्या जगह है? संविधान और कानून हर नागरिक की सुरक्षा, उसके अधिकार और अभिव्यक्ति को समान दर्जा देता है। इसलिए जरूरी है कि इस मामले की निष्पक्ष जांच हो और दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए, ताकि पीड़ित परिवार को न्याय मिल सके।