राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने की सैद्धांतिक मांग पुरानी है। अपेक्षा की जाती थी कि राजनीतिक दल खुद महिलाओं को राजनीति में आगे लाएं और वे अपने दम पर अपनी जगह बनाएं। मगर यह विचार व्यावहारिक रूप लेता नहीं दिख पाया, तो सिफारिश की गई कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दी जाएं।

इसे लेकर मसविदा भी तैयार हुआ। संसद में उसे कानूनी दर्जा दिलाने की भी कोशिशें होती रहीं, मगर विभिन्न राजनीतिक दलों के विरोध के चलते इसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। पिछले सत्ताईस सालों से यह विधेयक अधर में झूल रहा है। अब सरकार ने एक बार फिर इसे लोकसभा में पारित कराने का मन बना लिया है। विधेयक सदन में पेश कर दिया गया है।

अगर इसे कानूनी दर्जा मिल गया तो लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या बढ़ कर एक सौ इक्यासी हो जाएगी। फिलहाल उनकी संख्या बयासी है। इसी तरह विधानसभाओं में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ जाएगी। प्रस्तुत विधेयक को केवल पंद्रह सालों तक लागू रखने का प्रस्ताव है। इसके बाद नए सिरे से इसे सदन में पारित कराना पड़ेगा। ऐसा इसलिए कि राजनीति में अगर महिलाओं की भगीदारी सशक्त होती है, तो शायद इस कानून की जरूरत ही न पड़े।

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लोकसभा में सरकार मजबूत स्थिति में है, इसलिए इस विधेयक के पारित होने में कोई अड़चन महसूस नहीं की जा रही। राज्यसभा में यह पहले ही पारित हो चुका है। फिर, इसकी मांग विपक्षी दल भी लंबे समय से कर रहे थे। संसद का विशेष सत्र शुरू हुआ तब भी सभी दलों की ओर से इस विधेयक को सदन में पेश करने की मांग उठी।

कोई भी दल महिला आरक्षण के विरोध में कभी नहीं रहा है, बस मतभेद इसके मसविदे के बिंदुओं को लेकर उभरते रहे हैं। समाजवादी और वामपंथी दल इसका इसलिए विरोध करते रहे हैं कि हाशिये के कहे जाने वाले तबकों की महिलाओं के लिए इसमें कोई स्पष्ट रेखा तय नहीं की गई थी।

नए विधेयक में महिलाओं के लिए तय तैंतीस फीसद आरक्षण के भीतर अलग-अलग वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण तय करने के बजाय लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की खातिरआरक्षित सीटों में से ही तैंतीस फीसद महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रस्ताव है। इसके अलावा अगर आरक्षित सीटों से बाहर भी महिलाएं चुनाव लड़ना चाहें तो लड़ सकती हैं। हालांकि अन्य पिछड़ी जातियों के लिए किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, इसलिए असल विरोध का स्वर वहीं से उठता रहा है।

दरअसल, महिला आरक्षण का मकसद विधायिका में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना है, इसलिए कुछ लोगों का विचार यह भी रहा है कि महिलाओं को आरक्षण के जरिए ही क्यों आगे आने का अवसर मिलना चाहिए, उन्हें अपने दम पर आगे आने का मौका देना चाहिए। इसलिए एक विचार यह भी आया कि राजनीतिक दल खुद अपने सांगठनिक ढांचे में एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था लागू करें।

मगर हैरानी की बात है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के सैद्धांतिक विचार का समर्थन तो सभी दल करते हैं, चुनावी सभाओं में इसकी मांग भी दोहराते हैं, मगर संगठन के स्तर पर इसे आगे बढ़ाता कोई नजर नहीं आता। महिला आरक्षण विधेयक अगर संसद में पारित हो जाता है तो यह निस्संदेह एक ऐतिहासिक कदम होगा, मगर उसके बाद भी यह देखना होगा कि राजनीतिक दल महिलाओं को संगठन में कितनी अहम जगह देते हैं।