गठबंधन में चुनाव जीत कर बहुमत हासिल करने पर अक्सर मुख्यमंत्री पद को लेकर असमंजस की स्थिति बन जाती है। फिर, गठबंधन धर्म का निर्वाह और सहयोगी दलों के साथ सौहार्दपूर्ण समीकरण बिठाने में कई बार कठिनाई पेश आती है। महाराष्ट्र में भाजपा के सामने भी वही स्थिति है। वहां उसने एकनाथ शिंदे की अगुआई वाली शिवसेना और अजित पवार की अगुआई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था। सबसे अधिक सीटें भाजपा को मिलीं। स्पष्ट बहुमत से महज तेरह सीटें कम। इस लिहाज से मुख्यमंत्री पद पर उसी का हक बनता है। शुरू में एकनाथ शिंदे ने जरूर कुछ दबाव बनाने का प्रयास किया था, मगर आखिरकार उन्होंने भी भाजपा का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। इस तरह भाजपा के लिए रास्ता साफ हो गया और देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे माना जाने लगा। मगर दिल्ली में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के साथ बैठक के बाद भी मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा नहीं की जा सकी। चुनाव नतीजों के सात दिन बाद भी इस मामले में निर्णय न लिए जा सकने से स्वाभाविक ही तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।
पिछली सरकार में काफी उथल-पुथल बनी रही। तब शिवसेना के साथ मिल कर भाजपा ने चुनाव लड़ा था, मगर चुनाव नतीजों के बाद शिवसेना ने पाला बदल लिया और कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस से हाथ मिला कर महाअघाड़ी की सरकार बना ली थी। फिर शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस में बड़ी टूट हुई और इन दलों के नेताओं ने भाजपा के साथ मिल कर एकनाथ शिंदे की अगुआई में सरकार बना ली थी। संभव है, वहां उलट-फेर की आशंका भाजपा को अब भी सता रही होगी, इसलिए वह नई सरकार के गठन में किसी भी तरह सहयोगी दलों को असंतुष्ट नहीं रखना चाहती। फिर, जातियों का समीकरण भी उसे साधना है। वह मराठा दबदबे से अलग पिछड़े और दलित वर्ग में पैठ बनाना चाहती है।
मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के बाद जिस तरह इन वर्गों को संतुष्ट करने का प्रयास किया, उससे यह कयास स्वाभाविक रूप से लगाया जाने लगा है कि महाराष्ट्र में भी भाजपा कोई हैरान करने वाला फैसला कर सकती है। राजनीति में केवल सरकार बना लेना महत्त्वपूर्ण नहीं होता, सरकार के माध्यम से अपने जनाधार का विस्तार करना भी होता है। भाजपा इसी रणनीति पर काम कर रही है।
मगर सरकार के गठन में देरी से प्रशासनिक कामकाज पर प्रतिकूल असर पड़ता है। मतदाता उन वादों को अमली जामा पहनते देखना चाहते हैं, जो चुनाव प्रचार के समय विजेता पक्ष ने किए थे। प्रशासनिक अमला इंतजार करता रहता है कि नई सरकार निर्देश दे कि उसे किन मसलों को तरजीह देना है और किन मसलों को मुल्तवी करना है। महाराष्ट्र आर्थिक रूप से समृद्ध राज्यों में शुमार है, इसलिए वहां सरकार गठन में होने वाली देरी का असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है।
यह ठीक है कि गठबंधन में संतुलन साधना कठिन होता है, मगर महाराष्ट्र में ऐसी कोई अड़चन नजर नहीं आती। भाजपा को ही अपने असमंजस से बाहर निकलना है। चूंकि वह बड़ी पार्टी है, उसे सहयोगी दलों के साथ उदारता पूर्वक व्यवहार करना और उनके सहयोग का सम्मान करना होगा, तभी महायुति की टिकाऊ और भरोसेमंद सरकार बन सकेगी। पहले ही महाराष्ट्र काफी उठा-पटक झेल चुका है, उसे राजनीतिक स्थायित्व की जरूरत है।