आजकल एक नया चलन चल पड़ा है कि जब भी जांच एजंसियां किसी अनियमितता के मामले में पूछताछ के लिए किसी राजनेता को बुलाती हैं, तो वह अपने को पीड़ित बता कर सत्तापक्ष पर राजनीतिक द्वेष से कार्रवाई करने का आरोप लगाना शुरू कर देता है। भारत राष्ट्र समिति की नेता और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी के कविता ने भी वही रास्ता अख्तियार किया।

सवालों का सामना करने से बचने के लिए लगाते हैं तमाम आरोप

प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें दिल्ली आबकारी मामले में कथित अनियमितता के सिलसिले में पूछताछ के लिए बुलाया है। हालांकि के कविता ने कहा कि वे प्रवर्तन निदेशालय के सवालों का सामना करने को तैयार हैं, पर साथ ही उन्होंने इस पूरे घटनाक्रम को राजनीतिक रंग देने से भी परहेज नहीं किया। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार उनकी पार्टी के लोगों को जानबूझ कर परेशान कर रही है और इसमें जांच एजंसियों का सहारा ले रही है।

तेलंगाना में होने वाले विधानसभा चुनावों से भी उन्होंने इस जांच को जोड़ दिया। ऐसा ही आम आदमी पार्टी के नेता कहते आ रहे हैं। जब मनीष सिसोदिया को सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय ने पूछताछ के लिए बुलाया तो वे केंद्र सरकार पर आरोप लगाते रहे कि वह उनके खिलाफ जांच एजंसियों का दुरुपयोग कर रही है। अब जब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है, तब भी उनके आरोप जस के तस बने हुए हैं।

कुछ दिनों पहले नौ राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर जांच एजंसियों के दुरुपयोग की शिकायत की थी। उस पत्र में उन लोगों के नाम दिए गए थे, जिन्हें जांच एजंसियां नाहक परेशान कर रही हैं। उनमें मनीष सिसोदिया का नाम भी था। फिर उन नेताओं के भी नाम थे, जिनके खिलाफ पहले जांच एजंसियों ने कार्रवाई शुरू की थी, मगर उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया, तो वे जांचें ठंडे बस्ते में डाल दी गर्इं।

इसके पहले नेशनल हेराल्ड मामले में जब कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पूछताछ के लिए बुलाया गया, तब भी यही शोर मचा था कि केंद्र सरकार द्वेषपूर्ण भावना से कार्रवाई कर रही है। तब कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने सड़कों पर विरोध प्रदर्शन भी किए थे। यह समझना मुश्किल है कि अब अनियमितताओं को लेकर राजनेता इतने दिलेर कैसे हो गए हैं कि जांचों में सहयोग करने के बजाय उल्टा जांच करने वालों को ही कठघरे में खड़ा करते देखे जाने लगे हैं।

इस तरह अब भ्रष्टाचार को लेकर लोगों में भ्रमपूर्ण स्थिति बनी रहती है। उनके लिए यह तय करना मुश्किल होता है कि क्या जिन नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, वे वास्तव में दोषी हैं भी या नहीं।

भारत दुनिया के भ्रष्टतम देशों में शुमार है। यह भी छिपी बात नहीं है कि चुनाव जीतने के साथ ही राजनेताओं की संपत्ति में दिन दोगुनी रात चौगुनी वृद्धि होनी शुरू हो जाती है। मगर जैसे ही उनके खिलाफ अनियमितता का मामला दर्ज होता है, वे खुद को सबसे ईमानदार और सत्तापक्ष को बेईमान साबित करने पर तुल जाते हैं। यह भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने का एक नया नुस्खा चल पड़ा है।

अगर वे सचमुच ईमानदार हैं, तो उन्हें जांचों से बचने का प्रयास ही क्यों करना चाहिए। हालांकि जांचों के पीछे की राजनीति को भी सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। बहुत पहले से सत्तापक्ष जांच एजंसियों को अपने अनुसार संचालित करता रहा है। इसलिए जांचों को पक्षपातमुक्त रखने की अपेक्षा इसलिए की जाती है कि इससे भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के प्रयासों की विश्वसनीयता बढ़ेगी।