राजनीतिक दलों को भी सूचनाधिकार कानून के दायरे में लाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। मगर पार्टियां इस तर्क पर इसका विरोध करती रही हैं कि इस तरह लोग उनके हर गोपनीय फैसले, हर कदम के बारे में भी जानकारी मांगना शुरू कर देंगे। राजनीतिक दलों का पंजीकरण जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत होता है, उन्हें सरकार का हिस्सा नहीं माना जा सकता कि उनके हर फैसले के बारे में लोगों को जानकारी दी जाए। मगर अब सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में सुनवाई की तारीख तय कर दी है। उसने केंद्र सरकार, निर्वाचन आयोग और छह प्रमुख राजनीतिक पार्टियों से कहा है कि इस संबंध में वे अपना तर्क पेश करें।

केंद्रीय सूचना आयोग ने भी 2013 में कहा था कि राजनीतिक पार्टियों का कामकाज सूचनाधिकार कानून के दायरे में आता है। मगर उस पर अब तक किसी भी दल ने अमल नहीं किया है। इसे लेकर एक स्वयंसेवी संगठन और एक अधिवक्ता ने याचिका दायर की थी। अदालत ने उन दोनों याचिकाओं को साथ मिला कर सुनवाई करने का फैसला किया है। यह मामला पिछले दस वर्षों से लटका हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा कदम से यह उम्मीद बनी है कि राजनीतिक दलों की जवाबदेही को लेकर कोई सकारात्मक कदम उठाया जा सकेगा।

चुनावी चंदों को ध्यान में रखकर लिया जा रहा फैसला

पार्टियों के कामकाज में पारदर्शिता का सवाल तब गाढ़े रूप में उठाया जाने लगा था, जब चुनावी चंदे को लेकर शक पैदा हुआ था। चुनावी चंदे के संबंध में सरकार ने नियम बनाया था कि उसके ब्योरे नहीं मांगे जा सकते। पार्टियों को यह बताना जरूरी नहीं होगा कि उन्होंने किससे कितना चंदा लिया।

निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर सवाल, देश के नागरिकों का कमजोर हुआ भरोसा

बैंक भी इससे संबंधित ब्योरे गोपनीय रखेंगे। मगर जब इसे अदालत में चुनौती दी गई तो सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस तरह चुनावी चंदे लेना गैर-संवैधानिक है। इस तरह यह तय हुआ कि राजनीतिक दल सूचना का अधिकार कानून के दायरे से बाहर नहीं हैं। याचिकाकर्ताओं ने केंद्रीय सूचना आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों के आलोक में ही कहा है कि राजनीतिक दलों को सूचनाधिकार कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए।

लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं कही जा सकती

यह ठीक है कि राजनीतिक दलों का पंजीकरण जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत होता है, मगर इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि वे आम लोगों को अंधेरे में रख कर गतिविधियां चलाएं। चुनावी चंदे पर फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जो लोग पार्टियों को चंदा देते हैं, उन्हें यह जानने का अधिकार है कि उस पैसे का कहां और किस तरह उपयोग किया गया। यह छिपी बात नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह राजनीतिक दलों को भारी पैमाने पर चंदा मिल रहा है और वे उससे संबंधित विवरण छिपाने का प्रयास करते हैं, उसे लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं कही जा सकती।

महाकुंभ में प्रचार से ज्यादा होनी चाहिए थी व्यवस्था, अंदाजा लगाने में विफल रहा प्रशासन

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद प्राप्त विवरणों से जाहिर हुआ कि बहुत सारी कंपनियों और व्यक्तियों ने राजनीतिक दलों को काफी बड़ी रकम इसलिए दी थी कि उन्हें उसके बदले कोई कारोबारी लाभ मिला था। इस तरह राजनीतिक दलों की नैतिकता और पारदर्शिता पर सवाल उठे थे। अगर राजनीतिक दलों को लगता है कि उनके आंतरिक मामलों में बाहरी हस्तक्षेप न हो, तो कुछ बिंदुओं को अलग किया जा सकता है। मगर उनके वित्तीय आदि पक्षों को जवाबदेही के दायरे में लाने से क्यों गुरेज होना चाहिए। राजनीतिक दलों के कामकाज में पारदर्शिता तो होनी ही चाहिए।