दुनिया भर में तेजी से बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य में अगर अलग-अलग देशों के बीच संबंधों के समीकरण में तेजी से बदलाव आते देखे जा रहे हैं, तो यह कोई हैरानी की बात नहीं है। इस कड़ी में देखें तो चीन के विदेश मंत्री के भारत दौरे से जो संकेत उभरे हैं, वे न केवल भारत के लिए नए कूटनीतिक मोर्चे के तहत भावी मुश्किलों से निपटने की तैयारी की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, बल्कि इससे यह भी साबित होता है कि मौजूदा विश्व में विकसित या मजबूत देशों को इस तरह का भ्रम नहीं रखना चाहिए कि वे मनमाने तरीके से किसी अन्य देश पर अपनी नीतियां थोप सकेंगे।
हालांकि अब भारत जल्दबाजी में किसी फैसले तक पहुंचने के बजाय सावधानी से परिस्थितियों का आकलन करने और अपने हित को तरजीह देने की नीति के तहत कदम बढ़ा रहा है।
अमेरिका अपनी सुविधा के मुताबिक जिस तरह शुल्क थोपने की नीति पर चल रहा है, उसमें भारत के सामने कुछ जटिल परिस्थितियां खड़ी हो रही हैं। इन्हीं से निपटने के लिए रूस और चीन के साथ भारत नए समीकरण बनने की संभावनाएं देख रहा है। मगर साथ ही भारत के लिए अपनी संप्रभुता का सवाल भी सबसे ऊपर है।
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दरअसल, यह जगजाहिर रहा है कि चीन के साथ सीमा पर भारत के लिए किस तरह के जटिल हालात बनते रहे हैं। शायद यही वजह है कि चीन के विदेश मंत्री से भारतीय विदेश मंत्री ने साफ कहा कि संबंधों में सुधार जरूरी है, लेकिन उसके लिए पहले सीमा पर तनाव घटाना होगा।
वहीं, चीनी विदेश मंत्री ने भी कहा कि दोनों देशों के संबंध में सहयोग की ओर लौटने की दिशा में सकारात्मक रुझान दिख रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समय-समय पर अचानक खड़ी होने वाली परिस्थितियों की वजह से देशों के बीच संबंधों के समीकरणों में बदलाव होता रहा है।
इसी क्रम में चीन के साथ हर वक्त सावधानी से संबंधों का निर्वाह करने के बावजूद भारत अभी अपने सामने खड़े विकल्पों में से प्राथमिकता के आधार पर राह चुनने को महत्त्व दे रहा है। मगर यह याद रखने की जरूरत होगी कि चीन की नीतियों और उसके विस्तारवादी रवैये की वजह से भारत के सामने किस तरह की दुविधाएं और मुश्किलें खड़ी होती रही हैं।