सरकार जम्मू-कश्मीर में दहशतगर्दी पर काबू पाए जाने के चाहे जितने दावे करे, पर हकीकत यही है कि वहां आतंकवादियों का मंसूबा कमजोर नहीं हुआ लगता है। वे समय-समय पर अपनी रणनीति बदलते हैं और घात लगा कर सेना और सुरक्षा बलों पर हमला कर देते हैं। पुंछ में आतंकवादरोधी अभियान में तैनात एक वाहन पर हथगोले से हमला इसका ताजा उदाहरण है। बताया जा रहा है कि दहशतगर्दों ने बारिश और कम दृश्यता का फायदा उठा कर वाहन पर हथगोले फेंके, जिससे आग लगने की वजह से पांच जवान शहीद हो गए और एक गंभीर रूप से घायल है।
सरकारी आंकड़ों में बताया जाता है कि घाटी में सतत सघन तलाशी अभियान, आतंकियों को वित्तपोषण करने वालों की पहचान और उनके खिलाफ सख्ती के चलते आतंकवादियों की तादाद काफी कम हो गई है। आतंकवादी हमलों में कमी के आंकड़े भी पेश किए जाते हैं। मगर शायद ही कोई महीना गुजरता है, जब सुरक्षाबलों पर आतंकी हमले की कोई घटना नहीं होती।
इसके समांतर घाटी में रह रहे बाहरी लोगों, खासकर कश्मीरी पंडितों को निशाना बना कर हमले किए जाते हैं। यह सब तब हो रहा है, जब सड़क मार्ग के रास्ते पाकिस्तान के साथ तिजारत बंद है, जो दहशतगर्दों तक हथियारों की खेप पहुंचने का बड़ा माध्यम मानी जाती थी। फिर सीमा पर चौकसी पहले से बढ़ी है और अत्याधुनिक उपकरणों से लगातार निगरानी की जाती है। फिर भी उनके पास हथियार, हथगोले और धन पहुंच रहा है, तो निगरानी तंत्र को और पुख्ता बनाने की जरूरत स्वत: रेखांकित होती है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कश्मीर घाटी में आतंकवादियों को पाकिस्तान की ओर से मदद मुहैया कराई जाती है। मगर पिछले सात-आठ सालों में जब वहां लगातार अलगाववादियों और दहशतगर्दों के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है। उन तक हथियार और पैसे की पहुंच रोकने के तमाम उपाय किए गए हैं। उनका समर्थन और वित्तपोषण करने वालों को सलाखों के पीछे डाला जा चुका है, उसके बावजूद क्या वजह है कि आतंकवादी न सिर्फ अपनी मौजूदगी बनाए हुए हैं, बल्कि सुरक्षा बलों को चुनौती भी देते रहते हैं।
सरकार को इन पहलुओं पर नए सिरे से और व्यावहारिक ढंग से विचार करना चाहिए। इस सच्चाई से आंख नहीं फेरी जा सकती कि बिना स्थानीय समर्थन के आतंकवादी वहां बने रह सकते हैं। जिस दौर में स्थानीय लोगों ने आतंकवादियों को पनाह देनी बंद कर दी थी और वे उनका विरोध करने लगे थे, उस दौरान घाटी में आतंकवादी घटनाओं पर काफी हद तक लगाम लग गई थी।
मगर जबसे जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा छिना है, घाटी के लोगों में खासा आक्रोश है। सच्चाई यह भी है कि सरकार वहां के लोगों को अपने फैसले के पक्ष में सहमत कर पाने में सफल नहीं हो पाई है। वहां आम लोगों और हुकूमत के बीच दूरी बढ़ती गई है। संवाद का कोई सिलसिला रह नहीं गया है। रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं हो रहे हैं और पारंपरिक रोजगार बाधित है।
ऐसे में वहां के युवाओं का गुमराह होना स्वाभाविक है। वे हाथों में हथियार उठा लेते हैं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि आतंकी संगठनों में नई भर्तियों को रोकने में अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पाई है। केवल बंदूक के बल पर दहशतगर्दी को रोकने का दावा नहीं किया जा सकता। इस तरह हमारे जवान नाहक आतंक का शिकार बन रहे हैं।