उम्मीद थी कि रविवार तक जम्मू-कश्मीर में सरकार को लेकर तस्वीर साफ हो जाएगी। पर अब भी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। इससे पीडीपी और भाजपा के गठबंधन को लेकर अटकलें लगाई जाने लगी हैं। यों कोई ऐसा मतभेद नहीं पैदा हुआ, जो गठजोड़ का चलना असंभव बना दे। मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद उनकी जगह नए मुख्यमंत्री को शपथ लेनी है। पीडीपी विधायक दल महबूबा मुफ्ती को अपना नेता चुन चुका है और राज्यपाल को इस बारे में बता भी दिया है। भाजपा भी कह चुकी है कि वह महबूबा मुफ्ती को समर्थन देने के लिए तैयार है, पर अभी उसने राज्यपाल को इस बारे में औपचारिक रूप से सूचित नहीं किया है। उसने राज्यपाल को सिर्फ यह बताया है कि पीडीपी का जवाब मिलने के बाद सरकार के गठन के बारे में वह अपना रुख तय करेगी।

दूसरी ओर, ऐसे भी संकेत है कि महबूबा खुद सरकार के गठन में देर कर रही हैं। क्या इसकी वजह सिर्फ यह है कि अपने पिता की मौत के कारण वे सदमे में होंगी। लेकिन इस बीच उनसे सोनिया गांधी और नितिन गडकरी की अलग-अलग हुई मुलाकातों को सरकार के गठन में हो रहे विलंब से भी जोड़ कर देखा जा रहा है। यों पीडीपी ने आधिकारिक रूप से यही कहा है कि भाजपा से उसका गठबंधन कायम है, पर पार्टी के एक वरिष्ठ नेता मुजफ्फर हुसैन का यह कहना दिलचस्प है कि विकल्प खुले हैं और राजनीति में चीजें कभी भी बदल सकती हैं। तो क्या समीकरण बदलने के आसार हैं? खुद मुफ्ती मोहम्मद सईद ने एक बार कहा था कि पीडीपी और भाजपा दो ध्रुव हैं। फिर भी दोनों का गठबंधन हुआ और सरकार बनी, क्योंकि त्रिशंकु विधानसभा में इसके सिवा कोई चारा नहीं था। भाजपा से गठबंधन महबूबा को रास नहीं आया होगा, पर हालात के आगे उन्होंने भी हथियार डाल दिए।

राज्य की सत्तासी सदस्यीय विधानसभा में पीडीपी के अट्ठाईस, भाजपा के पच्चीस, कांग्रेस के बारह और नेशनल कॉन्फ्रेंस के पंद्रह सदस्य हैं। अगर कांग्रेस से हाथ मिला कर बहुमत संभव होता, तो शायद पीडीपी वही करती। कांग्रेस और पीडीपी के विधायकों को मिला दें, तो बहुमत के आंकड़े में चार की कसर रह जाती है। यह अंतराल कैसे पूरा होगा? महबूबा मुफ्ती ने अपनी राजनीतिक पारी 1996 में कांग्रेस से ही शुरू की थी। पहली बार वे कांग्रेस के ही टिकट पर विधानसभा के लिए चुनी गर्इं। 1998 में मुफ्ती मोहम्मद सईद कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में ही अनंतनाग से लोकसभा के लिए चुने गए थे। इस तरह मुफ्ती और महबूबा 1999 में पीडीपी के रूप में अलग पार्टी बनाने से पहले घाटी में कांग्रेस के ही चेहरे थे।

पीडीपी की स्थापना के बाद भी बरसों कांग्रेस से दोस्ती का नाता रहा, 2002 से 2008 के बीच दोनों पार्टियों की साझा सरकार रही। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए कांग्रेस से फिर से तार जोड़ने की कोशिश हो तो हैरत की बात नहीं होगी। पीडीपी का एक धड़ा आज भी भाजपा से गठजोड़ के पक्ष में नहीं है। दूसरी ओर भाजपा के भीतर भी पीडीपी से गठजोड़ पर नाराजगी के छिटपुट स्वर उठते रहे हैं। भाजपा मुफ्ती मोहम्मद सईद के उत्तराधिकारी के तौर पर महबूबा को स्वीकार करने को भले तैयार हो, पर वह चाहती होगी कि पहले की तुलना में अहम विभाग कहीं ज्यादा संख्या में उसकी झोली में आ जाएं। हो सकता है भाजपा की इसी रणनीति की काट में महबूबा विलंब कर रही हों।