पाकिस्तान ने एक बार फिर नवंबर 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले की बाबत भारत से सबूत मांगे हैं। यह मांग बताती है कि आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान के आनाकानी भरे रवैए में आज भी कोई फर्क नहीं आया है। यों भारत ने आतंकवाद के ढेर सारे दंश झेले हैं। मगर उस पर सबसे बड़ा आतंकी हमला मुंबई कांड था, जिसमें एक सौ छियासठ लोग मारे गए थे। इस कांड को लेकर सबूतों की कमी नहीं रही है। मीडिया रिपोर्टों से लेकर विधिवत हुई जांच की रिपोर्टों तक ढेर सारी जानकारियां दर्ज हैं। बहुत सारे पक्के प्रमाण भी हैं। एक ‘जिंदा सबूत’ अजमल कसाब था जिसे पकड़ लिया गया था, और न्यायिक कार्यवाही के बाद जिसे फांसी हुई। भारत ने ढेर सारी विस्तृत रिपोर्टें और सबूत पाकिस्तान को सौंपे हैं। फिर, बहुत सारे तथ्य डेविड हेडली की गवाही से भी सामने आ चुके हैं। हेडली खुद मुंबई कांड की तैयारी में शामिल रह चुका था। उसने विस्तार से बताया कि किस तरह लश्कर-ए-तैयबा ने हमलावरों को प्रशिक्षित किया और किसको क्या काम सौंपा।

प्रशिक्षक और नियंत्रक की भूमिका में कौन-कौन थे और हमले की योजना पाकिस्तान में कब कहां बनी; इस सब में पाकिस्तानी फौज की खुफिया एजेंसी आइएसआइ ने किस तरह से मदद की। अगर पाकिस्तान की मंशा पाक-साफ होती तो सबूतों की कमी कहां है! आखिर उसे कितने सबूत चाहिए? अब एक बार फिर सबूत की मांग करने के पीछे दो कारण हो सकते हैं। भारत लगातार यह आग्रह करता रहा है कि 26/11 से संबंधित न्यायिक कार्यवाही को पाकिस्तान शीघ्रता से तार्किक परिणति तक पहुंचाए। इस मामले में पाकिस्तान ने लश्कर-ए-तैयबा के सरगना जकीउर्रहमान लखवी समेत सात आरोपियों को गिरफ्तार किया था। पर लखवी अभी जमानत पर है। पाकिस्तान दुनिया को यह जताना चाहता होगा कि कसर उसकी तरफ से नहीं, भारत की तरफ से है।

क्या गजब का स्वांग है, कि ढिलाई पीड़ित पक्ष की तरफ से है! दूसरा कारण सबूतों की कमी का बहाना कर मामले को घसीटते रहने, एकदम लचर बना देने और आरोपियों को बचाने का होगा। पर मुंबई मामला अकेला नहीं है जिसमें पाकिस्तान ने सबूत-सबूत का खेल खेला हो। पठानकोट मामले में भी उसने यही किया। आतंकियों के पाकिस्तानी नागरिक होने और हमले की योजना पाकिस्तान में बनने के तमाम सबूत भारत ने सौंप दिए थे। पर पाकिस्तान को यह नाकाफी लगा। उसने जेआइटी यानी संयुक्त जांच टीम गठित की। भारत ने जेआइटी को जांच के लिए पठानकोट आने की इजाजत दे दी। फिर, सहमति के मुताबिक भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) को भी पाकिस्तान जाकर जांच और आरोपियों से पूछताछ करनी थी।

पर अपनी बारी आई तो पाकिस्तान मुकर गया, एनआइए को अपने यहां आने की इजाजत नहीं दी। यही नहीं, उसने जेआइटी को भारत की तरफ से सौंपे गए तमाम सबूतों को भी खारिज कर दिया। और भी आतंकी हमलों के मामलों में पाकिस्तान का रवैया ऐसा ही रहा है। दरअसल, उसकी दिलचस्पी सबूतों को जानने और उनके मद््देनजर कार्रवाई करने में नहीं, सबूतों पर परदा डालने में रही है। क्या पाकिस्तान के सत्तातंत्र को इस बात का भय है कि अगर 26/11 के मामले को तर्कसंगत परिणति तक ले जाया जाएगा, तो यह पाकिस्तानी फौज के एक हिस्से को और कट्टरपंथियों को कतई रास नहीं आएगा, और वे उथल-पुथल मचाने की कोशिश कर सकते हैं? पर इनके सामने घुटने टेकते जाना पाकिस्तान के भी हित में नहीं ह