भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर का पाकिस्तान जाना यों तो उनकी सार्क यात्रा का एक हिस्सा था, पर उनके दौरे का यही मुकाम सबसे अहम कहा जाएगा। इसलिए कि पड़ोसी देशों में पाकिस्तान ही है, जिसके साथ भारत के रिश्ते महीनों से तनाव भरे रहे हैं। दोनों मुल्कों के बीच विदेश सचिव स्तर की बैठक ढाई साल पहले हुई थी। आठ महीने पूर्व इस स्तर की बातचीत होनी थी, मगर हुर्रियत नेताओं के साथ पाकिस्तान के उच्चायुक्त की मुलाकात से नाराज होकर भारत ने वह प्रस्तावित बातचीत रद्द कर दी।
फिर, नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम के उल्लंघन की घटनाओं ने संवाद को और मुश्किल बना दिया। इस खटास की छाया पिछले साल काठमांडो में सार्क के शिखर सम्मेलन में भी दिखाई दी। वहां नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ एक-दूसरे से कन्नी काटते रहे। उनका अनबोलापन सम्मेलन के अंतिम क्षणों में जाकर टूटा, जिसका श्रेय मेजबान देश के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला को था। बहरहाल, पाकिस्तान से फिर से संवाद के तार जोड़ने की पहल भारत ने ही की, जब क्रिकेट विश्वकप शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने क्रिकेट खेलने वाले अन्य पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ पाकिस्तान के भी प्रधानमंत्री को फोन कर उनकी टीमों के लिए शुभकामनाएं दीं।
इसी के साथ विदेश मंत्रालय ने विदेश सचिव के सार्क दौरे का कार्यक्रम घोषित किया। क्या सार्क के अन्य सभी देशों को इसलिए शामिल किया गया कि एस जयशंकर का दौरा पाकिस्तान-केंद्रित न दिखे? जो हो, उत्सुकता विदेश सचिव के पाकिस्तान जाने को लेकर ही रही है। वहां पाकिस्तान के विदेश सचिव एजाज अहमद चौधरी से हुई बातचीत के बाद दोनों पक्षों ने कहा कि साझा जमीन तलाशने और मतभेद कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। फिर एस जयशंकर पाकिस्तान के विदेश मामलों के सलाहकार सरताज अजीज और प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से भी मिले। दोनों पक्ष फिर से द्विपक्षीय मसलों पर बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने को राजी हैं। यह स्वागत-योग्य है। भारत के रुख में अब परिवर्तन क्यों आया, इसकी कुछ खास वजहों का अंदाजा लगाया जा सकता है।
संघर्ष विराम के उल्लंघन की घटनाएं थम गई हैं। दूसरे, जम्मू-कश्मीर में साझा सरकार की अगुआई कर रही पीडीपी का एक जोरदार आग्रह पाकिस्तान से शांति वार्ता शुरू करने का भी रहा है। तीसरे, अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी यही चाहता है कि भारत-पाकिस्तान बातचीत की मेज पर बैठें। पश्चिमी देशों के अलावा सार्क के दूसरे देशों की भी यही इच्छा है, क्योंकि भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव या संवादहीनता की सूरत में सार्क की योजनाओं पर बुरा असर पड़ता है।
सार्क विश्वविद्यालय की स्थापना के पुराने प्रस्ताव से लेकर सार्क उपग्रह के मोदी के सुझाव तक उसके अनेक कार्यक्रम सहमति के बावजूद अधर में हैं। फिर, अगले साल सार्क का शिखर सम्मेलन इस्लामाबाद में होना है, जिसमें स्वाभाविक ही मोदी के शिरकत करने की उम्मीद की जा सकती है। अगर पाकिस्तान से संबंध सामान्य बनाने की कोशिश नहीं होती, तो अगले शिखर सम्मेलन की नाकामी को लेकर जल्दी ही कयासों का दौर शुरू हो जाता। बहरहाल, अब वैसी आशंका नहीं है।
ताजा बातचीत में भारत ने आतंकवाद और नवंबर 2008 के मुंबई कांड के आरोपियों के खिलाफ मुकदमों के बेहद धीमी गति से चलने का मुद््दा उठाया, तो पाकिस्तान ने समझौता एक्सप्रेस पर हुए हमले और बलूचिस्तान में भारत की दखलंदाजी का राग अलापा। साफ है कि बातचीत का सिलसिला नए सिरे से शुरू भी हुआ, तो संतोषजनक प्रगति के आसार ज्यादा नहीं हैं। मगर नागरिकों के स्तर पर संपर्क और आपसी व्यापार की सुविधाएं बढ़ाने और जल विवाद सुलझाने के मामलों में साझी जमीन तलाशने की उम्मीद की जा सकती है। फिर, संवाद में आए गतिरोध का टूटना ही अपने में एक उपलब्धि होगी।
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