सीबीआई के ‘लुक आउट’ नोटिस को ठेंगा दिखाते हुए शराब कारोबारी और राज्यसभा सांसद विजय माल्या का विदेश के लिए उड़नछू हो जाना उनसे नौ हजार करोड़ रुपए की ऋण वसूली की आस लगाए बैठे बैंकों के लिए करारा झटका है। उनके विदेश जाने का पता भी तब लगा है जब सुप्रीम कोर्ट से कर्जदाता बैंकों ने माल्या का पासपोर्ट जब्त करने और सुनवाई के लिए खुद हाजिर होने का निर्देश देने की अपील की थी। इस पर अटार्नी जनरल ने बताया कि माल्या तो दो मार्च को ही देश छोड़ कर चले गए थे। गौरतलब है कि माल्या पर भारतीय स्टेट बैंक सहित देश के सत्रह बैंकों का नौ हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज बकाया है।
बार-बार नोटिस देने पर भी इस कर्ज की वसूली न होने के कारण कई बैंक उन्हें ‘जानबूझ कर कर्ज न चुकाने वाला’ घोषित कर चुके हैं। अब हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने माल्या को नोटिस जारी कर उनसे बैंकों की याचिकाओं पर दो हफ्ते में जवाब मांगा है लेकिन इतने भर से डूबी हुई रकम वापस मिलने की उम्मीद पालना खुद को धोखे में रखना ही कहा जाएगा। अपनी बेलगाम शाहखर्ची, रंगीली फितरत और चकाचौंध भरी जीवनशैली के चलते माल्या ऋणदाताओं-निवेशकों को हकीकत से बेखबर रखने में कामयाब होते रहे। जब उन्होंने शराब कंपनी यूनाइटेड स्पिरिट में अपनी हिस्सेदारी पांच सौ पंद्रह करोड़ रुपए में बहुराष्ट्रीय कंपनी डियाजियो को बेची और उसका चेयरमैन पद छोड़ने पर राजी हुए तभी आशंका व्यक्त की जाने लगी थी कि वे सबकुछ समेट कर भागने की फिराक में हैं। तब भी उन्हें कर्ज देने वाले बैंक नहीं चेते, मगर अब उनके विदेश भाग जाने पर लकीर पीट रहे हैं।
माल्या का मामला देश में उदारीकरण के दौरान व्यावसायिक घरानों की लूट के प्रति हमारे समूचे वित्तीय तंत्र की बेहिसाब उदारता की एक बेहद अफसोसनाक मिसाल है। किंगफिशर एअरलाइंस बढ़ते घाटे के कारण लगातार डूबती रही लेकिन जाने-माने बैंकों ने इसके बहीखातों की गहन पड़ताल किए बगैर हजारों करोड़ का ऋण उदारतापूर्वक दे दिया। अब सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि आखिर इतना कर्ज दिया ही क्यों था, तो उनका हास्यास्पद जवाब है कि किंगफिशर की ‘ब्रांड वैल्यू’ और उसके विमानों को देखते हुए यह कर्ज दिया गया था। क्या किसी कंपनी के वित्तीय प्रदर्शन और भविष्य की योजनाएं परखे बगैर कथित ‘ब्रांड वैल्यू’ या तामझाम पर रीझ कर ऋण-वर्षा कर देने को उचित ठहराया जा सकता है?
यह तो बैंकिंग प्रणाली के बुनियादी तकाजों-एहतियातों के सर्वथा विपरीत है जिसके लिए कर्जदार के साथ कर्जदाता भी बराबर के दोषी ठहराए जाने चाहिए। बैंकों के साथ ही कर्ज वसूली न्यायाधिकरण, प्रवर्तन निदेशालय या सीबीआई भी माल्या पर शिकंजा कसने में देरी के दोष से बरी नहीं हो सकते। जब यह तथ्य जगजाहिर हो चुका था कि किंगफिशर पर बकाया कर्ज की वसूली जनवरी 2012 से नहीं हो रही है, तो ये सब चार साल तक क्यों सोते रहे? अब जाकर इन्हें मनी लांड्रिंग या विदेशी मुद्रा विनिमय कानून के तहत मामले दर्ज करने या किसी विशेष रकम की निकासी पर रोक लगाने की सुध अब आई है जब माल्या पकड़ से दूर जा चुके हैं। माल्या की कंपनी का घोषवाक्य है ‘द किंग आॅफ गुड टाइम्स’ यानी अच्छे दिनों का राजा। यह राजा बैंकों को हजारों करोड़ की चपत लगाने के मामले में भी अपनी बादशाहत बरकरार रखेगा, इससे ज्यादा अफसोसनाक भला क्या हो सकता है!