सबसे खूबसूरत और कोमल इंसानी अहसासों में शुमार प्रेम अब रूमानी किस्से-कहानियों के बजाय अपराध की खौफनाक दुनिया में दस्तक देता ज्यादा दिखाई दे रहा है। यह कैसा प्यार है जिसमें छिपी नृशंसता नित-नए कीर्तिमान बनाने को आतुर रहती है। और भी चिंताजनक यह है कि हमारे सभ्य समाज के माथे पर चिंता की लकीरें खिंचती कहीं दिखाई नहीं देतीं। आखिर हम कैसा समाज बना रहे हैं! दिल्ली में इसी मंगलवार को एक प्रेमी ने कॉलेज छात्रा प्रेमिका की न केवल गला घोंट कर हत्या कर दी बल्कि अपने घर में ही उसका शव छुपा कर दो दिन बाद एक अन्य लड़की से शादी भी कर ली।
जिस प्रेमिका के साथ कई साल तक प्रेम के खूबसूरत पलों को जिया था उसकी हत्या करते वक्त न तो प्रेमी के हाथ कांपे, न उन खूनी हाथों से प्रेमिका की लाश को ठिकाने लगाते और किसी दूसरी लड़की की मांग में सिंदूर भरते हुए उसके अंतर्मन ने उसे जरा भी झकझोरा। इसे इंसानी भावनाओं-संवेदनाओं के कुंद हो जाने या पतन की पराकाष्ठा के सिवा क्या कहा जा सकता है! ऐसी ही एक अन्य खबर देहरादून की है जहां प्रेमी ने पहले तो प्रेमिका के साथ ‘सेल्फी’ ली और फिर उसे सोशल मीडिया पर अपने दोस्तों के साथ शेयर किया। उसके बाद धारदार हथियार से प्रेमिका का गला रेत कर उसे सड़क पर तड़पती छोड़ फरार हो गया। इन हालिया खबरों के अलावा मुंबई के शीना बोरा हत्याकांड को कौन भूल सकता है, जिसमें उसकी मां इंद्राणी मुखर्जी ही बतौर अभियुक्त सलाखों के पीछे है। प्रेम-त्रिकोण, इकतरफा प्रेम, अवैध संबंधों के शक आदि के कारण पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका के एक-दूसरे की जान लेने जैसे जघन्य अपराधों की यह सूची लगातार लंबी होती जा रही है। अपराधी तो पहचाने जाकर देर-सबेर पकड़े जाते हैं लेकिन उन वजहों की सूक्ष्म शिनाख्त होना और उन्हें दूर करना बाकी है जिनके चलते ऐसे अपराधों में लगातार इजाफा हो रहा है।
कबीर ने जब ‘प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाय’ कहा था तो उन्होंने प्रेम की एकनिष्ठता की सटीक पहचान की थी। एकनिष्ठता की इस अपेक्षा की उपेक्षा का प्रेमी-प्रेमिका के बीच ईर्ष्या-द्वेष में परिणत हो जाना सहज मानवीय भावात्मक दुर्बलता बेशक कहा जाए, मगर इसके हत्या तक पहुंच जाने का किसी भी तर्क से बचाव नहीं किया जा सकता। आज वर्जनाओं में शिथिलता, शिक्षा के प्रसार, सूचना-संचार की व्यापकता और समाज में चौतरफा खुलापन बेशक आया हो, यह खुलापन प्रेम में साथी की भावनाओं-जरूरतों-विवशताओं का सम्मान करने के उच्च तकाजों तक नहीं पहुंच पाया है।
इसीलिए ‘मेरी नहीं तो किसी और की भी नहीं’ सरीखी मानसिकता से पोषित प्रतिशोधी विषधर फन फैला कर प्रिय को ही डसने पर उतारू हो जाता है। समाज विज्ञानी, कानूनविद और अपराधशास्त्री अपराधों के बढ़ते ग्राफ पर तो खूब चिंता जताते हैं मगर प्रेम-संबंधों के बीच अपराधों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत महसूस नहीं करते। पश्चिमी आधुनिकता की तमाम नकल के बावजूद भारत के समाज और परिवारों में युवक-युवती के प्रेम की सहज स्वीकृति नदारद है। स्वीकार्यता के इस अभाव से पैदा दबाव से भी प्रेमपाश में बंधे युगल कभी खुद मौत को गले लगा लेते हैं तो कभी प्रिय की ही जान ले बैठते हैं। प्रेम को इस तरह अपराधोन्मुख और लहूलुहान होने से हर हाल में रोका जाना जीवन मूल्यों की हिफाजत का अहम तकाजा है।