एक वीडियो के जरिए दिल्ली पुलिस का जो चेहरा फिर सामने आया है, वह न केवल मौका मिलते ही पुलिसकर्मियों के अराजक और अमानवीय हो जाने का सबूत है, बल्कि एक लोकतांत्रिक शासन के सामने गंभीर सवाल भी है। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से पांच छात्रों के निलंबन और उनमें से एक छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद देश भर में जिस तरह आक्रोश और विरोध की लहर उठी है, उसके मद््देनजर सरकार और पुलिस को संवेदनशीलता से पेश आने की जरूरत थी।
लेकिन इस मसले पर शनिवार को जब विद्यार्थियों का एक समूह दिल्ली के झंडेवालान स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय के सामने लोकतांत्रिक तरीके से विरोध जताने जा रहा था, तो बिना किसी उकसावे की कार्रवाई के पुलिसकर्मियों ने विद्यार्थियों पर लाठी बरसाना और उन्हें खदेड़ कर बुरी तरह पीटना शुरू कर दिया। वीडियो में दर्ज दृश्य दिखाते हैं कि छात्रों को तो पुलिस ने बेरहमी से पीटा ही, छात्राओं को भी नहीं बख्शा, उन्हें बाल पकड़ कर जमीन पर गिरा दिया गया और घसीटा गया।
आखिर भारी तादाद में मौजूद पुलिसकर्मियों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए निहत्थे छात्र-छात्राओं से शांतिपूर्वक निपटने के बजाय उनके साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया? इस समूचे मामले में सबसे ज्यादा शर्मनाक बात यह थी कि पुलिसकर्मियों के बीच सामान्य कपड़े पहने कुछ अराजक तत्त्व भी थे, जो पुलिसकर्मियों के साथ और एक तरह से उनके संरक्षण में छात्र-छात्राओं पर हमले कर रहे थे। खुद पुलिस अधिकारियों का कहना है कि हिंसा करने वाले वे सामान्य लोग पुलिसकर्मी नहीं थे। फिर वे कौन लोग थे और किसकी इजाजत से पुलिसकर्मियों के साथ मिल कर विद्यार्थियों पर कहर ढा रहे थे? अगर वे कोई असामाजिक या गुंडा-तत्त्व थे, तो पुलिसकर्मियों के साथ बेरोकटोक छात्र-छात्राओं पर हमले कैसे कर रहे थे? जब प्रदर्शनकारियों के बीच काफी तादाद में छात्राएं मौजूद थीं और सुरक्षा-व्यवस्था के लिए भारी पैमाने पर पुलिस-बल को तैनात किया गया था, तो वहां महिला पुलिसकर्मी क्यों नहीं थीं?
ऐसा तब हुआ जब विद्यार्थियों का समूह विरोध जताने के लिए सिर्फ नारे लगा रहा था। अगर ये बातें वीडियो में रिकार्ड न होतीं तो दिल्ली पुलिस शायद इन तथ्यों को महज आरोप कह कर खारिज कर देती। लेकिन उस हिंसक माहौल में जोखिम उठा कर बनाए गए वीडियो ने सच सामने ला दिया है। और अब दिल्ली पुलिस सवालों के कठघरे में है। कुछ ही दिन पहले उसे दिल्ली हाईकोर्ट ने झाड़ पिलाई थी, इस बात पर कि वह नागरिकों की सुरक्षा के अपने दायित्व का ठीक से पालन क्यों नहीं कर रही है; लगता है उसे राजनीतिक आकाओं को खुश करने की फिक्र ज्यादा है।
क्या अदालत की इस फटकार का कोई असर नहीं हुआ है? विद्यार्थियों के साथ दिल्ली पुलिस के इस सलूक ने एक बार फिर पुलिस सुधार की जरूरत को रेखांकित किया है।आखिर पुलिसकर्मियों को किस तरह का प्रशिक्षण मिलता है कि वे शांतिपूर्ण प्रदर्शनों से भी ऐसे निपटते हैं जैसे दुश्मनों से मुकाबला हो? पर केवल पुलिस को दोष देना ठीक नहीं होगा। दिल्ली पुलिस केंद्र के अधीन है। क्या वह संघ परिवार के किसी संगठन से जुड़े प्रदर्शकारियों पर भी इसी टूट पड़ती? लिहाजा, इस मामले के राजनीतिक पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।