इसमें दो राय नहीं कि ध्वनि प्रदूषण दिनोंदिन बढ़ता गया है। दरअसल, जिस तरह हवा और पानी में प्रदूषण तेजी से बढ़ा है, उसी तरह वातावरण में शोर भी। हालत यह है कि चाहे आप सड़क पर हों या घर में या कामकाज की जगह पर, कहीं भी शोर से छुटकारा नहीं है। सड़कों पर यातायात का शोर लगातार आपका पीछा कर रहा होता है। पर जब यातायात में न हों, तब भी आप कोलाहल झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं। जुलूस और सभाएं आयोजित करने वाले तो यह मान कर ही चलते हैं कि ज्यादा से ज्यादा दूर तक माहौल गुंजाना उनका काम है। और भी कई मौके काफी शोर-भरे होते हैं। जैसे, विवाह समारोह काफी आवाज पैदा करते हैं। बैंड बाजों का शोर तो रहता ही है, पटाखे ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण, दोनों में इजाफा करते हैं। फिर, धर्मस्थल और धार्मिक आयोजन भी आए दिन या रोज ही ध्वनि प्रदूषण को बढ़ाते रहते हैं। कभी कुछ देर के लिए, तो कभी दस-बारह घंटे लगातार या उससे भी ज्यादा। दिन और रात का लिहाज भी नहीं किया जाता। आयोजक और प्रबंधक यह मान कर चलते हैं कि चूंकि वे पुनीत समझे जाने वाले काम में लगे हैं इसलिए चाहे जितनी देर तक और चाहे जितनी ऊंची आवाज में लाउडस्पीकर बजाएं, चलेगा। और सचमुच यही होता है।
धार्मिक कार्य का हिस्सा मान कर कोई उन्हें रोकता-टोकता नहीं, न कोई पुलिस में शिकायत करता है, कोई करे भी तो पुलिस ऐसे मामले में पड़ना नहीं चाहती और उलटे शिकायतकर्ता को आयोजकों-प्रबंधकों की नाराजगी मोल लेनी पड़ती है। लेकिन समय आ गया है कि ध्वनि प्रदूषण पर लगाम लगे। उत्तर प्रदेश ने इसकी शुरुआत की है। अलबत्ता यह सरकारी पहल का परिणाम नहीं है, बल्कि एक अदालती आदेश का नतीजा है। गौरतलब है कि बीते बीस दिसंबर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लखनऊ खंडपीठ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से पूछा था कि क्या सब तरह के धार्मिक स्थानों समेत सार्वजनिक स्थलों पर लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करने वालों ने इसकी लिखित अनुमति संबंधित अधिकारियों से ली है? इस संबंध में छह हफ्तों के भीतर अदालत को अवगत कराया जाए। उच्च न्यायालय के इस निर्देश के चलते उत्तर प्रदेश सरकार ने तेजी दिखाते हुए राज्य के सभी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षकों, पुलिस अधीक्षकों और जिलाधिकारियों से विस्तृत छानबीन करने, संबंधित जगहों की पहचान करने और रिपोर्ट देने को कहा है। राज्य सरकार की इस सक्रियता ने ऐसे बहुत-से लोगों की नींद उड़ा दी है, जो कभी दूसरों की नींद की फिक्र नहीं करते थे। लेकिन अचानक अफरातफरी का यह आलम न पैदा होता, अगर उत्तर प्रदेश में ध्वनि प्रदूषण (नियमन एवं नियंत्रण) कानून, 2000 पर अमल हो रहा होता।
कहने को यह कानून सत्रह साल पहले ही बन गया था, पर इन बरसों में खुलेआम इस कानून की धज्जियां उड़ाई जाती रहीं। इस कानून में प्रावधान है कि सार्वजनिक स्थान पर लाउडस्पीकर की आवाज आसपास के औसत ध्वनि-स्तर की तुलना में दस डेसिबल से अधिक न हो। निजी स्थानों को भी बख्शा नहीं गया है, अलबत्ता वहां के लिए मानक पांच डेसिबल का रखा गया है। न शासन को इस कानून की फिक्र थी न समाज को। बहुतों को शायद पता भी नहीं रहा होगा। लेकिन अगर प्रशासन की तरफ से इस कानून पर अमल कराने के लिए दखल दिया जा रहा होता, तो समाज में जरूर इस बारे में जागरूकता आई होती। यह स्थिति इसी मामले तक सीमित नहीं है। पर्यावरण संबंधी दूसरे कानूनों के साथ भी यही हुआ है। पर उदासीनता का यह सिलसिला बंद होना चाहिए।