पिछले कुछ समय से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर चर्चा जारी है। नीति आयोग, चुनाव आयोग और विधि आयोग जैसी संस्थाओं और राजनीतिक दलों में इसे लेकर गहन विचार चल रहा है। विधि आयोग ने राजनीतिक दलों से इस पर विमर्श किया है, उनके विचार जाने हैं और सुझाव भी मांगे हैं। नीति आयोग ने तो पहले ही कह दिया है कि 2024 में देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं। हालांकि राजनीतिक दलों में इस पर अभी मतैक्य नहीं है। कुछ दलों को इसमें लाभ, तो कुछ को नुकसान ज्यादा नजर आ रहे हैं। लेकिन साथ चुनाव कराने के पक्ष में जो तर्क दिए जा रहे हैं, उनसे भी एक सीमा तक असहमति नहीं जताई जा सकती। इसमें दो राय नहीं कि इसके कुछ नुकसान होंगे। लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि बदलते वक्त के साथ हमारी जरूरतें क्या हैं और हमारा सर्वाधिक हित किसमें है। यह जरूर सुनिश्चित होना चाहिए कि लोकतंत्र के इस सबसे बड़े आयोजन की पवित्रता पर कोई आंच न आए।
ऐसा नहीं है कि भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने की बात पहली बार हो रही है। इससे पहले 1957, 1962 और 1967 में देश में लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभाओं के भी चुनाव हुए थे। हालांकि इसके लिए कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं थी। लेकिन 1967 के बाद से यह सिलसिला पटरी से उतर आ गया। फिर 1983 में चुनाव आयोग की सालाना रिपोर्ट में इसका जिक्र आया, जिसमें दोनों चुनाव साथ कराने का सुझाव था। तब से ऐसे अनेक मौके आए जब लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने की चर्चा उठती रही। संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में इसका जिक्र हुआ। एक साथ चुनाव कराने के पीछे जो तर्क तब थे, कमोबेश वही अब भी हैं। आज भी कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है। लेकिन अब यह महसूस किया जा रहा है कि चुनावों का काम जल्दी और आसानी से संपन्न हो जाए तो उससे समय, पैसे और संसाधन को काफी बचाया जा सकता है। इसलिए इसे एक सकारात्मक कदम के रूप में लिया जाना चाहिए।
लेकिन भारत जैसे देश में चुनाव जिस तरह का विशालकाय आयोजन होता है, उसे देखते हुए कई व्यावहारिक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। चुनाव आयोग ने सितंबर, 2018 के बाद एक साथ चुनाव कराने के लिए कमर कसने की बात कही थी। लेकिन इसके लिए बारह लाख नई ईवीएम मशीनों और वीवीपीएटी की व्यवस्था की बात उठी। इससे सरकारी खजाने पर 4500 करोड़ का बोझ पड़ता। नीति आयोग का कहना है कि 2009 के लोकसभा चुनाव पर 1195 करोड़ रुपए खर्च हुए थे और 2014 के चुनाव में 3900 करोड़। ऐसे में अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हों तो ये 4500 करोड़ रुपए बच सकते हैं और इससे ईवीएम मशीनों और वीवीपीएटी के खर्चे का इंतजाम हो सकता है। इसके अलावा जितने बड़े पैमाने पर सरकारी मशीनरी को इस आयोजन में लगाना पड़ता है, वह भी एक गंभीर समस्या है। इससे सरकारी कामकाज में लंबे समय तक व्यवधान बना रहता है। चुनाव से पूर्व राज्यों में आचार संहिता की वजह से कई जनकल्याण से जुड़ी योजनाओं के क्रियान्वयन में देरी होती है। इसका असर समूचे विकास पर पड़ता है। जैसे 2016-17 में महाराष्ट्र में चुनावों की वजह से 365 में से 307 दिन आचार संहिता लागू रही थी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ऐसा रास्ता नहीं निकाला जाना चाहिए कि पूरे देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का आयोजन साथ हो और विकास कार्यों पर भी असर न पड़े!