अनेक वस्तुओं और सेवाओं पर माल एवं सेवा कर यानी जीएसटी की असंगत दरों को लेकर सवाल उठते रहे हैं। विपक्षी दल अक्सर सरकार पर निशाना साधते हैं, मगर अभी तक इसे लेकर कोई व्यावहारिक और सर्वमान्य पैमाना तय नहीं हो सका है। अब सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने वित्तमंत्री को पत्र लिख कर जीवन एवं स्वास्थ्य बीमा पर से जीएसटी हटाने की मांग की है। फिलहाल इस पर अठारह फीसद जीएसटी लागू है।

दरअसल, नागपुर मंडल के बीमा एजंटों के संघ ने गडकरी को इस संबंध में ज्ञापन सौंपा था। उसी के संदर्भ में उन्होंने वित्तमंत्री से स्वास्थ्य बीमा पर से जीएसटी हटाने की मांग की है। उनका कहना है कि स्वास्थ्य बीमा को सामाजिक सुरक्षा के मद्देनजर सुविधाजनक बनाने की जरूरत है, ताकि बुजुर्गों और दूसरे लोगों को इसका अधिक से अधिक लाभ मिल सके। इससे पहले जून में देश भर के बीमा एजंटों के संघ ने वित्तमंत्री से अपील की थी कि वे बीमा पर से जीएसटी की दरें घटा कर पांच फीसद कर दें, ताकि बीमा ग्राहकों पर इसके मासिक भुगतान का भार कुछ कम हो सके। मगर पिछली जीएसटी की बैठक में इस पर कोई विचार नहीं किया गया। अब सरकार के एक केंद्रीय मंत्री की अपील पर शायद इस दिशा में कोई सकारात्मक नतीजा निकले।

बीमा एजंटों का तर्क है कि पिछले पांच वर्षों में स्वास्थ्य और अन्य बीमाओं का ‘प्रीमियम’ दो गुना बढ़ गया है। जीएसटी लगने से उन पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। इस तरह स्वास्थ्य बीमा के नवीकरण में गिरावट दर्ज हो रही है। स्वास्थ्य बीमा नवीकरण की दर 65 से 75 फीसद तक ही रह गई है। जाहिर है, बीमा का प्रीमियम बढ़ने से बहुत सारे लोग उनका नवीकरण नहीं करा रहे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बहुत सारे लोग नया बीमा खरीदने से भी हिचकते होंगे।

कुछ महीने पहले सरकार ने स्वास्थ्य बीमा सुविधाओं को व्यापक बनाने के मकसद से इसे सत्तर वर्ष से ऊपर के लोगों के लिए खरीदने का रास्ता भी खोल दिया था। मगर जब बीमा का मासिक भुगतान उनकी क्षमता से बाहर रहेगा, तो भला कैसे वे इसका लाभ उठा पाएंगे। वैसे भी सामाजिक सुरक्षा संबंधी योजनाओं की पहुंच सभी तक नहीं है। नई पेंशन योजना के बाद से बड़ी संख्या में लोगों के पास बढ़ती उम्र में इलाज पर खर्च करने की क्षमता नहीं रह गई है। तिस पर अगर सरकार स्वास्थ्य बीमा को भी उनकी पहुंच से बाहर कर देगी, तो इलाज पर निरंतर बढ़ते खर्च के बीच वे कैसे अपनी स्वास्थ्य देखभाल कर पाएंगे।

जीएसटी लागू करते समय दावा किया गया था कि हर वर्ष इसकी दरों में संशोधन होगा और घटते-घटते वे काफी कम हो जाएंगी। मगर इतने वर्षों में अनेक समीक्षाओं के बाद भी जीएसटी की दरों को तर्कसंगत नहीं बनाया जा सका है। शुरू में जब जीएसटी का विचार पेश किया गया था तब इसकी अधिकतम दर अठारह फीसद रखने का वादा था, मगर फिलहाल इस दर के दायरे में ही ज्यादातर वस्तुएं और सेवाएं हैं। बहुत सारी चीजों पर इससे ऊंची दरें हैं। अब राज्यों के हिस्से के घाटे की भरपाई का दबाव भी केंद्र सरकार पर नहीं है। इसके बावजूद स्वास्थ्य बीमा जैसी हर नागरिक के लिए जरूरी सुविधाओं पर भी जीएसटी दरें घटाने या हटाने पर विचार नहीं किया जाता। लचर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बीच यह आम नागरिकों पर अतिरिक्त मार ही है।