केंद्र सरकार की यह कवायद पहले भी आलोचनाओं के घेरे में थी कि सोशल मीडिया पर जारी सामग्रियों की जांच उसकी ओर से गठित एक इकाई करेगी और उसके आधार पर टिप्पणी या सामग्री को किसी मंच पर से हटाना या उसे रहने देने का फैसला होगा। इस संबंध में सरकार ने बुधवार को तथ्य जांच इकाई लागू करने के लिए अधिसूचना भी जारी कर दी थी।
मगर उसके एक दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की उस अधिसूचना पर फिलहाल रोक लगा दी। जाहिर है, सरकार अपनी जिस पहल को तथ्यों की जांच का नाम दे रही है, उसे शीर्ष अदालत ने अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ बताया है। हालांकि इस मसले पर अभी बंबई हाई कोर्ट में अंतिम फैसला आना बाकी है, मगर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की अधिसूचना पर रोक लगाने की जरूरत को रेखांकित करते हुए कहा कि अनुच्छेद 3(1)(बी)(5) की वैधता को चुनौती में गंभीर संवैधानिक प्रश्न शामिल हैं और बंबई हाई कोर्ट द्वारा ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ और अभिव्यक्ति पर नियमों के प्रभाव का विश्लेषण जरूरी था।
आज अभिव्यक्ति के मंचों का स्वरूप जिस तरह बदला है और अलग-अलग तरीकों से अपनी बात कहने की कोशिश की जाती है। सरकार ने तथ्य जांच इकाई से संबंधित जो अधिसूचना जारी की थी, उसके मुताबिक वह इकाई सोशल मीडिया के विभिन्न मंच, मसलन ‘फेसबुक’, ‘एक्स’ या ‘इंस्टाग्राम’ आदि पर डाली गई सामग्रियों की निगरानी कर सकती है और किसी जानकारी को फर्जी और गलत बता सकती है।
अगर वह तथ्य जांच इकाई किसी सामग्री पर आपत्ति जताती है तो सोशल मीडिया के संबंधित मंच को न सिर्फ उसे हटाना होगा, बल्कि उसके इंटरनेट पते यानी यूआरएल को भी प्रतिबंधित करना होगा। सवाल है कि सरकार के मातहत काम करने वाली एक एजंसी आखिरी तौर पर यह कैसे तय करेगी कि कोई सामग्री गलत या सही है! क्या ऐसे में उसके मनमाना रवैया अख्तियार कर लेने और सोशल मीडिया पर जारी किसी टिप्पणी या राय की सुविधाजनक तरीके से व्याख्या करके सही या गलत करार देने की आशंका नहीं पैदा होगी?
एक ओर देश के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बतौर अधिकार दर्ज है, तो दूसरी ओर अपनी सुविधा के मुताबिक उसकी मनमानी व्याख्या करके किसी मुद्दे पर लोगों को अपना पक्ष रखने को बाधित या हतोत्साहित करने की व्यवस्था की जाती है। यों भी अगर सोशल मीडिया पर कोई व्यक्ति अपनी राय जाहिर करता है, तो उसकी सच्चाई तय करने का अधिकार किसी सरकारी एजंसी के हाथों में केंद्रित क्यों होनी चाहिए! सही है कि इंटरनेट पर फर्जी सूचनाओं का संजाल भ्रामक धारणाओं का निर्माण करता है।
मगर ऐसा किसी भी पक्ष की ओर से किया जा सकता है। इसे लेकर जागरूकता का प्रसार किए जाने की जरूरत है कि लोग किसी सूचना के सच या झूठ होने को लेकर सजग रहें और खुद पड़ताल करें। मगर किन्हीं हालात में यह व्यवस्था लागू की ही जाती है तो उसके नतीजों का अंदाजा लगाना क्या इतना मुश्किल है? क्या इसके स्वतंत्र अभिव्यक्ति या विरोध की आवाज को दबाने के औजार में तब्दील हो जाने की स्थितियां नहीं पैदा होंगी? कहीं भी लोकतंत्र तभी जिंदा रहता है, जब वहां पक्ष और विपक्ष के बीच अलग-अलग मसलों पर बहसें होती हैं और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ विमर्श होता है। इस लिहाज से देखें तो तथ्य जांच इकाई के मसले पर सुप्रीम कोर्ट का रुख जरूरी और स्वागतयोग्य है।