बिहार के नवादा जिले में नरौरा के पास स्थित कृष्णा नगर की एक बस्ती में जिस तरह की अराजकता और आगजनी की घटना सामने आई है, उससे एक बार फिर यह सवाल उठा है कि राज्य में सुशासन के कथित दावे की हकीकत आखिर क्या है! वहां जिस बस्ती पर एक भीड़ ने हमला कर कम से कम इक्कीस घरों को आग के हवाले कर दिया, वे दलित परिवारों के थे। घटना के बाद पुलिस की शुरुआती रपट में वहां के जिन दो पक्षों के बीच आपस में जमीन पर कब्जे को लेकर हुई हिंसा का संकेत दिया गया है, वह आगे की जांच-पड़ताल और कार्रवाई से स्पष्ट होगा कि इसके जिम्मेदार कौन हैं।
मगर ऐसे मामलों में आमतौर पर पुलिस और प्रशासन की ओर से तब तक अनदेखी की जाती रहती है, जब तक घटना तूल न पकड़ ले। इस घटना पर भी राजनीति शुरू हो गई है और आरोपियों को लेकर अलग-अलग दावे किए जा रहे हैं, मगर निश्चित रूप से यह राज्य में कानून का राज कमजोर होने का सबूत है। इतना तय है कि नवादा में घरों में आग लगाने और हिंसा करने की घटना कोई अचानक नहीं हुई होगी।
पुलिस-प्रशासन की लापरवाही
विडंबना यह है कि जमीन पर कब्जे या दावे को लेकर दो पक्षों में जब तक छोटे-मोटे टकराव या बहसें होती रहती हैं, तब तक पुलिस या प्रशासन की ओर से कोई सुध नहीं ली जाती। मगर पुलिस की सक्रियता तब देखी जाती है, जब मामला आमतौर पर हाथ से निकल जाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अक्सर अतीत की सरकारों का हवाला देकर यही दावा करते रहते हैं कि उन्होंने राज्य को अराजकता की आग से बाहर निकाला है और उनके राज में सुशासन कायम हुआ है।
अफसोस की बात यह है कि राज्य में आपराधिक घटनाओं में ऐसी कोई उल्लेखनीय कमी नहीं देखी जा रही जिससे वहां कानून का राज कायम होने का संकेत मिले। नवादा की घटना में शामिल लोगों के भीतर यह खौफ क्यों नहीं था कि पुलिस उन्हें ऐसा करने से रोक सकती है या उनके खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई होगी?
सच यह है कि राज्य में आए दिन होने वाली आपराधिक वारदात की बढ़ती जटिलता यह बताती है कि वहां सामाजिक रूप से कमजोर तबके असुरक्षित हैं और कानून-व्यवस्था बेहद कमजोर हालत में है।