हाल में प्रधानमंत्री ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ कार्यक्रम की शुरुआत की। मगर इसके समांतर अगर गर्भ में मौजूद भ्रूण की लिंग जांच के विज्ञापन भी धड़ल्ले से प्रचारित-प्रसारित किए जा रहे हों तो ऐसे अभियानों की क्या सार्थकता बचेगी! पिछले कुछ सालों में भ्रूण का लिंग परीक्षण करने वाले क्लिनिकों के खिलाफ सख्ती की घोषणा की गई तो यह कारोबार करने वालों ने दूसरा रास्ता निकाल लिया। कंप्यूटर और इंटरनेट का उपयोग बढ़ता देख लिंग परीक्षण करने वालों ने गूगल, याहू और माइक्रोसॉफ्ट की बिंग जैसी वेबसाइटों पर खुलेआम विज्ञापन देना शुरू कर दिया। यह न सिर्फ कन्या भ्रूणहत्या पर रोक लगाने के मकसद से बने कानून का उल्लंघन, बल्कि महज कमाई के लिए एक असंतुलित होते जा रहे समाज के प्रति गैरजिम्मेदारी और बेफिक्री भी है।

इसलिए याहू, गूगल और माइक्रोसॉफ्ट को अपनी वेबसाइटों पर से लिंग जांच से संबंधित विज्ञापन तुरंत हटाने का सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश स्वागतयोग्य है। इस मसले पर केंद्र सरकार की दलील है कि अगर ऐसे विज्ञापनों को सीधे प्रतिबंधित करने के लिए कुछ खास शब्दों को ‘ब्लॉक’ जाएगा तो उससे संबंधित किसी भी सामग्री को खोजना संभव नहीं होगा। इंटरनेट पर यह एक व्यावहारिक समस्या है।

किसी खास शब्द को प्रतिबंधित किए जाने के चलते दूसरी अहम जानकारियां जुटाने में अड़चन आती है। लेकिन यह एक तकनीकी समस्या है और विशेषज्ञों की मदद से इसका हल निकाला जा सकता है। महज इस दलील पर लिंग जांच से संबंधित विज्ञापनों का बचाव नहीं किया जा सकता कि इन पर रोक से इससे संबंधित सभी सामग्री दिखनी बंद हो जाएगी।

देश में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के लगातार गिरते अनुपात के मद्देनजर तमाम सरकारी कार्यक्रमों और अभियानों के बावजूद हालात में कोई खास अंतर नहीं आ पा रहा है। हर अगली जनगणना में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की तादाद चिंताजनक स्तर पर घटती गई है। हैरानी की बात है कि अपनी जीवन-शैली में तमाम उपभोक्ता सामग्री सहित मोबाइल, कंप्यूटर या इंटरनेट आदि का इस्तेमाल करके खुद को आधुनिक महसूस करने वाले लोग बेटियों के प्रति इतने दुराग्रही और पिछड़े क्यों हैं कि गर्भ में ही उन्हें मार डालने में नहीं हिचकते! जब खुलेआम चलने वाले अल्ट्रासाउंड क्लिनिकों तक पहुंचने में दिक्कत पेश आई तो वे घर बैठे इंटरनेट पर भ्रूण की लिंग जांच और बेटियों से छुटकारा पाने से संबंधित सुविधाओं और जगहों की जानकारी हासिल करने लगे। यह बेवजह नहीं है कि देश के अपेक्षया संपन्न इलाकों में ही बेटियों को गर्भ में मार डालने की प्रवृत्ति सबसे ज्यादा पाई गई है।

दरअसल, समस्या की जड़ उस सामाजिक नजरिए में है, जिसमें तमाम क्षमताओं के बावजूद स्त्री की अस्मिता को खारिज किया जाता है। हर स्तर पर स्त्रियों को हेय मानने के अलावा उनके प्रति कई दूसरी तरह की गांठों के चलते भी कोई व्यक्ति या परिवार जन्म के पहले या बाद में बेटी को मार डालने का अपराध करने से नहीं हिचकता। जाहिर है, स्त्रियों के प्रति समाज की मानसिकता बदलने के व्यापक अभियान के बिना कानूनी सख्ती का असर सीमित ही रहेगा। विडंबना है कि अर्थव्यवस्था के ऊंचे ग्राफ पर टिके विकास के पैमानों में सामाजिक पहलुओं को संतुलित करने पर न सरकारों का ध्यान रहा है, न इस चकाचौंध में डूबे लोगों को इस बात की फिक्र सताती है कि महिलाओं के अनुपात में लगातार गिरावट का खमियाजा समूचे समाज को उठाना होगा, जिसमें वे खुद भी शामिल हैं।

 

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