आज तेजी से बहुध्रुवीय होती दुनिया में वैसे भी किसी देश के लिए यह संभव नहीं है कि वह लंबे समय तक सिर्फ अपने हित में एकतरफा नीतियां लागू करता रहे और उसे दूसरे देशों को मानने पर मजबूर करे। अब आर्थिक से लेकर राजनीतिक स्तर पर शक्ति किसी खास देश में स्थिर या सीमित नहीं है और पिछले दो-तीन दशकों के दौरान विश्व में तेजी से नए ध्रुव खड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में महाशक्ति होने के बावजूद अमेरिका वैश्विक सहयोग और परस्पर निर्भरता के सिद्धांत को अपनी ओर से कुछ समय के लिए टाल भले दे, लेकिन उसे पूरी तरह खारिज नहीं कर सकता।
यही वजह है कि कुछ महीने पहले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह दूसरे कई देशों से आयातित वस्तुओं पर शुल्क लगाने की घोषणा की थी, उस पर उन्हें दोबारा विचार करना पड़ रहा है। एक ओर, भारत ने अपने ऊपर रूस से तेल खरीद पर जुर्माना समेत पचास फीसद तक शुल्क लगाने के बावजूद अपनी नीतियों में कोई बड़ा बदलाव करना जरूरी नहीं समझा, तो दूसरी ओर चीन भी इससे बहुत चिंतित नजर नहीं आया।
अब बीते कुछ दिनों से अमेरिका की ओर से जैसे संकेत आ रहे हैं, उससे साफ है कि शुल्क लगाने को लेकर उसके रवैये में थोड़ी नरमी आ रही है। दरअसल, दक्षिण कोरिया के बुसान में आर्थिक सहयोग शिखर सम्मेलन के दौरान गुरुवार को अमेरिका और चीन के राष्ट्रपति के बीच मुलाकात के बाद एक-दूसरे के साथ व्यापार को फिर से पटरी पर लाने पर सहमति बनी। उसके बाद व्यापार युद्ध जैसी स्थिति के खत्म होने की उम्मीद की जा रही है। यों भी, अगर अमेरिका अपने रुख में बदलाव नहीं लाता है, तो व्यापार युद्ध के असर की आंच उस तक भी पहुंच सकती है।
इस क्रम में शी जिनपिंग से बातचीत के बाद ट्रंप ने कहा कि चीन के साथ अब दुर्लभ खनिज के व्यापार का मुद्दा सुलझा लिया गया है। इसके साथ ही अमेरिका की ओर से चीन पर लगाए गए शुल्क में दस फीसद की कमी कर दी गई। बदले में अमेरिका से बड़ी मात्रा में सोयाबीन खरीदने के लिए चीन तैयार हो गया है।
गौरतलब है कि दुनिया भर में करीब सत्तर फीसद दुर्लभ खनिजों का खनन चीन में होता है। यही नहीं, इसके प्रसंस्करण और निर्यात के लिए भी दुनिया की नब्बे फीसद निर्भरता चीन पर है। यानी संभव है कि इस मामले में चीन की मजबूत स्थिति को देखते हुए ही अमेरिका के रुख में बदलाव आया हो।
हालांकि एक दिन पहले ट्रंप ने भारत को लेकर भी पहले के मुकाबले काफी नरम रवैया दर्शाते हुए कहा था कि भारत के साथ अमेरिका व्यापार समझौता कर रहा है। साथ ही, चाबहार बंदरगाह परियोजना पर भी अमेरिकी प्रतिबंधों से भारत को छह महीने की छूट देने की घोषणा सामने आई।
जाहिर है, दूसरे देशों की आर्थिक नीतियों को प्रभावित या संचालित करने की कोशिश के बाद अब अमेरिका इस वास्तविकता को स्वीकार करता दिख रहा है कि दुनिया में राजनीतिक से लेकर आर्थिक स्तर पर शक्ति के ध्रुव जिस रफ्तार से बदल रहे हैं, उसमें कोई एक देश अपना वर्चस्व सब पर थोप नहीं सकता। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि परस्पर सहयोग के लिए एकतरफा तौर पर तय की गई कसौटियां दबाव की नीति के तहत बहुत लंबे समय तक संचालित नहीं की जा सकतीं। अपने हित को सुनिश्चित करने के क्रम में किसी दूसरे देश की नीतियों पर असर डालना या उसके स्वतंत्र फैसलों को बाधित करना उचित नहीं है।
