नस्ल और रंग के आधार पर भेदभाव पूरी दुनिया में चिंता का विषय है। भारतीय समाज भी इससे मुक्त नहीं है। सदियों से इस तरह के भेदभाव में महिलाएं कुछ ज्यादा ही निशाने पर होती आई हैं। दुख की बात है कि न केवल शिक्षित लड़कियां, बल्कि बड़े ओहदे पर आसीन महिलाएं भी इससे बच नहीं पाई हैं। भारतीय स्त्रियां रंग-रूप को लेकर जीवन भर चुभने वाली टिप्पणियों का सामना करती हैं। जबकि यह हकीकत है कि हजारों-लाखों महिलाओं ने अपनी प्रतिभा और संघर्ष से हर क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है।
केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन उनमें से एक हैं। हालांकि अपने सांवले रंग को लेकर समाज के पूर्वाग्रह से वे नहीं बच सकीं। सोशल मीडिया के एक मंच पर पिछले दिनों उन्हें अपने बारे में अभद्र टिप्पणी पढ़ने को मिली। स्वाभाविक रूप से यह उन्हें नागवार गुजरी। उन्होंने लिखा कि किसी ने मेरे मुख्य सचिव के कार्यकाल की तुलना मेरे पति के कार्यकाल से करते हुए लिखा कि यह उतना ही काला है, जितना मेरे पति गोरे थे। मगर मुझे अपने काले रंग से कोई दिक्कत नहीं। मुझे यह रंग पसंद है। उचित ही उनकी इस प्रतिक्रिया के बाद विमर्श शुरू हो गया है।
इस विषय पर होना चाहिए सामाजिक विमर्श
हम बेशक आधुनिक कहलाने में गर्व महसूस करते हों, लेकिन स्त्रियों के प्रति, खासकर उनके रंग-रूप को लेकर सोच आज भी नहीं बदली है। उनकी सफलता को रंग-रूप के चश्मे से देखना विकृत मानसिकता का परिचायक है। यह निराशाजनक है कि किसी महिला की योग्यता को उसके पति के रंग से परखा जाए।
शारदा मुरलीधरन ने किसी व्यक्ति की अनुचित और अरुचिकर टिप्पणी का जवाब देकर पूर्वाग्रहों पर कठोर प्रहार किया है। हालांकि उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी बात रखने के बाद उसे हटा दिया था, लेकिन बाद में कुछ शुभचिंतकों के यह कहने पर लिखा कि इस विषय पर सामाजिक विमर्श होना चाहिए। इसका सकारात्मक पहलू यह है कि रंग के मुद्दे पर शारदा के लिखे विस्तृत जवाब का बड़ी संख्या में लोगों ने स्वागत किया है। इससे पता चलता है कि कुछ लोग बेशक संकीर्ण सोच रखते हों, लेकिन समाज बदल रहा है।