गर्मी के मौसम में पानी की किल्लत हर जगह नजर आने लगती है। जलवायु परिवर्तन की वजह से पारंपरिक जल स्रोतों के सूखते जाने से यह संकट हर वर्ष कुछ बढ़ा हुआ दर्ज होने लगा है। खासकर महानगरों में पानी की समस्या गर्मी का मौसम शुरू होते ही बढ़ जाती है। दिल्ली भी इससे अछूती नहीं है। हर गर्मी में हरियाणा के साथ उसकी ठन जाती है कि हरियाणा समझौते के अनुसार उसके हिस्से का पानी नहीं छोड़ता।

इस बार भी मामला अदालत तक पहुंच गया है। पिछले हफ्ते दिल्ली सरकार ने पानी की बर्बादी रोकने के मकसद से व्यर्थ पानी बहाने वालों पर दो हजार रुपए जुर्माना लगाने का ऐलान किया। इसके लिए जल बोर्ड को दो सौ निगरानी दल गठित करने को कहा गया। पानी के बंटवारे पर अदालत का फैसला जो भी आए, पर हर वर्ष की इस स्थायी बन चुकी समस्या के मद्देनजर यह जरूरत सदा रेखांकित होती रही है कि अगर ठीक से पानी का प्रबंधन हो, तो इस समस्या से काफी हद तक पार पाया जा सकता है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पानी के मसले पर केवल सरकार की नाकामियां गिनाने और उसके मत्थे दोष मढ़ कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति पा लेने की कोशिशों से काम नहीं चलेगा। इसमें नागरिक दायित्व निर्वहन की भी जरूरत है। जब तक लोग खुद अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे कि बेवजह पानी बहाना कोई शान की बात नहीं, तब तक डंडे के जोर पर उन्हें नहीं रोका जा सकता। मगर इसका अर्थ यह भी नहीं कि इससे जल बोर्ड की जिम्मेदारियां समाप्त हो जाती हैं। जगह-जगह पाइपों के फटने से दिन भर पानी बहता रहता है।

महीनों उनकी मरम्मत नहीं हो पाती। फिर, वर्षों पहले वर्षा जल संचय के लिए दिल्ली में जलाशय बनाने की जो योजना पेश की गई थी, उस पर अपेक्षित काम नहीं हो पाया है। संगठनों के सहयोग से जल संकट से पार पाने के उपायों पर कारगर कदम उठाए जा सकते हैं। हालांकि जल बंटवारे को लेकर जिस तरह अनेक राज्यों के बीच अक्सर विवाद खड़े हो जाते हैं, उसके लिए भी व्यावहारिक कदम की अपेक्षा बनी हुई है।