कीनन सैंटोस और रूबेन फर्नांडीज की हत्या के चर्चित मामले में मुंबई के सत्र न्यायालय के फैसले ने एक न्यायिक तकाजे को तो पूरा किया ही है, समाज को एक जरूरी संदेश भी दिया है। अदालत ने इस मामले के चारों आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है जिसके तहत उन्हें मृत्यु तक कैद में ही रहना होगा। कीनन और रूबेन के परिजन भी यही चाहते थे और उन्होंने फैसले पर खुशी जताई है। गौरतलब है कि दोनों युवकों की हत्या कोई साढ़े चार साल पहले अंधेरी पश्चिम के अंबोली इलाके में हुई थी। दोनों अपनी महिला मित्रों के साथ रात का खाना खाकर एक रेस्तरां से निकल रहे थे। तभी कुछ लोगों ने उन महिलाओं के साथ छेड़खानी शुरू कर दी। कीनन और रूबेन ने छेड़खानी का डटकर विरोध किया तो उस वक्त आरोपी चले गए।
पर थोड़ी ही देर बाद अपने कुछ और साथियों के साथ ज्यादा तैयारी से वे आए और कीनन व रूबेन पर हमला बोल दिया। छुरा घोंपे जाने से कीनन की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि रूबेन की मौत अस्पताल में इलाज के दौरान हुई। स्वाभाविक ही इस हत्याकांड के चलते मुंबई में आक्रोश की लहर दौड़ गई थी। मुंबई लड़कियों-महिलाओं के बेखौफ घूमने-फिरने को सहजता से लेने और खुलेपन की संस्कृति वाला महानगर रहा है। यहां महिलाएं बेधड़क आती-जाती हैं और रात की पाली में भी काम करती दिख जाती हैं। मुंबई को अपने इस माहौल पर उचित ही नाज रहा है। इसलिए यह स्वाभाविक था कि कीनन-रूबेन हत्याकांड के खिलाफ खूब प्रदर्शन हुए और आरोपियों को जल्द सजा दिलाने की मुहिम चली। इसका असर भी हुआ। जल्द न्याय के मकसद से मामले को फास्ट ट्रैक अदालत को सौंपा गया। फिर भी आरोपपत्र दायर करने में ही अभियोजन पक्ष को साल भर का वक्त लग गया।
मुकदमा फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलने के बावजूद फैसला आने में साढ़े चार साल लग गए। इससे न्यायतंत्र की रफ्तार का अंदाजा लगाया जा सकता है। कीनन-रूबेन हत्याकांड के मामले में अभी सत्र न्यायालय का फैसला आया है। आरोपी अपील करेंगे, फिर ऊपरी अदालत का फैसला आने में भी वक्त लगेगा। कायदे से अधिक से अधिक तीन साल में आपराधिक मामलों में निचली अदालत से फैसला आ जाना चाहिए। कीनन-रूबेन हत्याकांड के मामले में आए फैसले पर पीड़ित पक्ष ने संतोष जताया है। पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि यौनहिंसा के ज्यादातर मामलों में जांच से लेकर न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने तक हर स्तर पर बहुत देरी होती है और साक्ष्य कमजोर पड़ते जाते हैं।
आंकड़े बताते हैं कि यौनहिंसा के मामलों में सजा की दर सबसे कम रही है। पिछले दिनों देश के प्रधान न्यायाधीश ने जजों की अपर्याप्त संख्या को लेकर ठीक ही दुख जताया। उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायिक सुधार में वित्तीय अड़चन अब आड़े नहीं आने दी जाएगी। पर हमारे समाज का रवैया भी कम शोचनीय नहीं है। छेड़खानी का विरोध करने पर जब कीनन और रूबेन पर आरोपियों ने हमला बोल दिया था, वहां खड़े दूसरे लोग चुपचाप तमाशबीन की तरह देख रहे थे। कीनन और रूबेन की महिला मित्रों ने बचाने की बार-बार गुहार लगाई, पर कोई एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा। बाद में भले रोष-प्रदर्शन तथा संवेदना-प्रदर्शन की बाढ़ आ गई हो। यह कैसा समाज बन रहा है।