यों तो अतिक्रमण या अवैध कब्जा हटाने के क्रम में पुलिस के बल प्रयोग के हिंसक विरोध के बहुत-से उदाहरण मिल जाएंगे, पर उत्तर प्रदेश के मथुरा में जो हुआ वह स्तब्ध कर देने वाला है। मथुरा के जवाहर बाग के अवैध कब्जाधारियों को हटाना जितना मुश्किल साबित हुआ और इसकी जैसी कीमत चुकानी पड़ी उसकी दूसरी मिसाल शायद ही मिले। कब्जा हटाने गए पुलिस दल पर अतिक्रमणकारियों ने हमला बोल दिया, हथगोले फेंके, गोलियां चलार्इं। एक पुलिस अधीक्षक और एक थाना प्रभारी की जान चली गई। करीब बीस पुलिसकर्मी घायल हो गए। दूसरी ओर, खून-खराबे पर उतारू भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस की कार्रवाई में बाईस लोग मारे गए और पचासों घायल हुए हैं। राज्य सरकार ने घटना की जांच के आदेश दे दिए हैं, अलबत्ता मामले की गंभीरता को देखते हुए विरोधी दलों ने प्रशासनिक स्तर पर जांच कराने के बजाय न्यायिक जांच की मांग की है।

बहरहाल, अतिक्रमण हटाने के दौरान दो पुलिस अधिकारियों समेत चौबीस लोगों की मौत ने कई सवाल उठाए हैं। पहला तो यही है कि क्या पुलिस ने सौंपे गए काम को ठीक ढंग से अंजाम दिया, और क्या पर्याप्त एहतियाती तैयारी की गई थी? खुद मुख्यमंत्री ने हालात को संभालने में पुलिस की नाकामी स्वीकार की है। पुलिस-प्रशासन के स्तर पर हुई कोताही कई तरह से जाहिर है। ‘स्वाधीन भारत सुभाष सेना’ के बैनर तले एक समूह ने, सागर से दिल्ली कूच के दौरान, जवाहर बाग में ठहरने के नाम पर डेरा डाला और फिर वहां कब्जा ही जमा लिया। प्रशासन ने वहां सिर्फ दो दिन ठहरने की अनुमति दी थी, पर दो दिन तो क्या महीनों तक कब्जा हटाने की कार्रवाई नहीं की। पर हुआ यह कि एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया कि कब्जा हटाया जाए। इस आदेश पर अमल कराने में भी प्रशासन हिचकता रहा, जिसके लिए उसे अदालत की अवमानना का आरोप झेलना पड़ा।

खुफिया महकमे की काहिली भी जाहिर है। जवाहर बाग पर कब्जा जमाए लोगों ने कहां से हथियार जुटा लिये, और उनके इरादे क्या हैं, इस सबके बारे में सूचनाएं जुटाने में वह विफल साबित हुआ। प्रशासनिक स्तर पर बरती गई तमाम ढिलाई के बरक्स कुछ और भी सवाल उठते हैं। अतिक्रमणकारी एक आध्यात्मिक गुरु के अनुयायी और संबंधित संगठन या संस्था से संबद्ध बताए जाते हैं। क्या विडंबना है कि जो लोग लालच तथा मोह-माया त्यागने और भौतिकतावादी जीवनशैली के खिलाफ नित उपदेश देते रहते हैं, वे जमीन-जायदाद जमा करने में किसी भी हद तक चले जाते हैं।

शांति से जीने का दर्शन बघारने और प्राणियों में सद्भावना जगाने का आह्वान करने वाले अदालत के आदेश पर भी शांतिपूर्वक अमल नहीं होने देते और हिंसा पर उतर आते हैं। यह हैरत की बात है कि जहां सिखावन और आचरण के बीच इतना विरोध हो, वहां भी बड़ी तादाद में अनुयायी मिल जाते हैं! शायद इसलिए कि बहुत-सी कथित आध्यात्मिक संस्थाएं और आश्रम सांसारिक काम कराने और इसके लिए अपने संपर्कों का लाभ दिलाने से लेकर लोगों के वैयक्तिक जीवन से संबंधित दुनियावी परेशानियां दूर करने का ख्वाब दिखाती हैं। इस तरह उनका अध्यात्म से भले कोई वास्तविक नाता न हो, पर उनके हजारों अनुयायी और शिष्य बन जाते हैं। दौलत और संसाधनों की ताकत अलग से। शायह यही कारण है कि उनके किसी गड़बड़झाले के बारे में पता भी हो तो कोई सरकार कार्रवाई की जहमत नहीं उठाना चाहती, न राजनीतिक दल बोलना चाहते हैं। पर अध्यात्म के नाम पर गिरोहबंदी हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।