मणिपुर में हिंसा की शुरुआत के एक वर्ष से ज्यादा बीत चुके हैं और आज भी इसके रुकने के आसार नहीं नजर आ रहे हैं। थोड़े अंतराल के बाद संबंधित संगठनों के बीच बातचीत या समझौते की कोई खबर आती है और कुछ ही दिनों बाद फिर से हिंसा भड़क जाती है। सवाल है कि इतने समय से सरकार किस दिशा में क्या काम कर रही हैं कि एक छोटे से राज्य में इतने लंबे वक्त से टकराव और हिंसा कायम है।

विचित्र हकीकत यह है कि राज्य सरकार आधिकारिक रूप से यह स्वीकार करती है कि हालात अच्छे नहीं हैं, मगर इसमें सुधार के लिए या तो उसे ठोस पहल करना जरूरी नहीं लगता या फिर उसके पास दूरदर्शिता का घोर अभाव है। वरना राज्य सरकार की तमाम एजंसियों, केंद्र सरकार के प्रयासों, सेना की दखल के बावजूद आज भी हिंसा का दौर जारी है, लोग बेघर हो रहे हैं तो इसकी क्या वजह हो सकती है?

विचित्र यह है कि मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को जहां इस बात की जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि राज्य में लगातार हिंसा को रोक पाने में उनकी सरकार नाकाम रही है, वहां वे राज्य में इस जातीय हिंसा की वजह से हुई तबाही के सिर्फ आंकड़े पेश कर रहे हैं। गौरतलब है कि एक सवाल के जवाब में सोमवार को विधानसभा में मुख्यमंत्री ने यह बताया कि राज्य में हुई हिंसा में अब तक करीब साठ हजार लोग विस्थापित हुए हैं और इस दौरान हुई आगजनी में ग्यारह हजार से ज्यादा घर जल कर खाक हो गए।

यह समझना मुश्किल है कि एक वर्ष से ज्यादा से जारी हिंसा के पीड़ितों का आंकड़ा पेश करते हुए उन्हें इसका अहसास था या नहीं कि हिंसा को पूरी तरह रोकना उनका दायित्व है। मगर पिछले वर्ष जब एक अदालती निर्देश के तहत मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति वर्ग का दर्जा देने का मसला उठा तभी जातीय हिंसा शुरू हुई। तब भी उनकी सरकार के पास इसे वहीं थाम लेने की दूरदर्शिता नहीं दिखी और न आज वह कुछ ऐसा ठोस कर पा रही है, जिससे राज्य के आम लोग इस आग से बाहर निकल सकें।

यह जगजाहिर तथ्य है कि मणिपुर में आज कुकी-जो और मैतेई सहित अलग-अलग समुदायों के बीच अविश्वास का स्तर इतना गहरा हो चुका है कि संवाद की गुंजाइश बेहद सिमट या खत्म हो गई है। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि कुछ ही दिन पहले राज्य के जिरीबाम जिले में शांति बहाल करने के लिए हमार और मैतेई प्रतिनिधियों के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हुए। मगर सिर्फ चौबीस घंटे के भीतर वह समझौता टूट गया और इसके साथ ही फिर से हिंसा शुरू हो गई।

इससे पहले राज्य और केंद्र की सरकारों की ओर से सुरक्षा बलों को उतारने से लेकर शांति समितियां बनाने जैसी पहलकदमियों की घोषणाएं हो चुकी हैं। मगर यह एक अफसोसनाक हकीकत है कि किसी भी सरकारी कवायद का अब तक कोई सकारात्मक हासिल सामने नहीं दिख रहा है। आज भी वहां हिंसा की वही आग जारी है, जो एक नीतिगत अदूरदर्शिता की वजह से भड़की थी। हैरानी की बात यह है कि इस बीच सरकार के रवैए में कोई बहुत ज्यादा फर्क आता नहीं दिख रहा, ताकि नए सिरे से हिंसा थमने या समस्या का कोई हल निकलने की उम्मीद जगे। तबाही के आंकड़े पेश करने के समांतर यह जरूरी है कि इस हालत के लिए अपनी नाकामी को भी स्वीकार किया जाए और कम से कम अब भी राज्य में उलझ चुकी इस जटिल समस्या का हल निकाला जाए।