देश के सबसे रंगीले उद्योगपतियों में शुमार शराब कारोबारी विजय माल्या पर कर्ज वसूली न्यायाधिकरण और प्रवर्तन निदेशालय का एक साथ शिकंजा कसने से उनकी कंपनियों पर बैंकों के बकाया ऋण की वसूली की कुछ उम्मीद जगी है। कर्ज वसूली न्यायाधिकरण ने जहां माल्या को बहुराष्ट्रीय शराब कंपनी डियाजियो से मिलने वाली 515 करोड़ रुपए की रकम निकालने पर फिलहाल रोक लगा दी है वहीं प्रवर्तन निदेशालय ने उनके खिलाफ मनी लांड्रिंग अर्थात काले धन को सफेद करने और अवैध लेन-देन का मामला दर्ज किया है। गौरतलब है कि माल्या ने पिछले महीने एक समझौते के तहत शराब कंपनी यूनाइटेड स्पिरिट में अपनी हिस्सेदारी बेच दी थी और उसके चेयरमैन का पद छोड़ने को तैयार हो गए थे। इसी के एवज में उन्हें यूनाइटेड स्पिरिट की नई मालिक बहुराष्ट्रीय कंपनी डियाजियो से साढ़े सात करोड़ डॉलर अर्थात पांच सौ पंद्रह करोड़ रुपए मिलने थे।

इस राशि पर भारतीय स्टेट बैंक ने पहला अधिकार माल्या के बजाय उनके कर्जदाताओं का बताया है। दरअसल, विजय माल्या की विमानन कंपनी किंगफिशर एयरलाइंस पर भारतीय स्टेट बैंक सहित सत्रह बैंकों का सात हजार आठ सौ करोड़ रुपए का कर्ज बकाया है जिसकी वसूली जनवरी 2012 से नहीं हो रही है। स्टेट बैंक और पंजाब नेशनल बैंक इसके लिए माल्या को ‘जानबूझ कर कर्ज न चुकाने वाला’ (विलफुल डिफाल्टर) घोषित कर चुके हैं और कई अन्य बैंक घोषित करने की प्रक्रिया में हैं। आईडीबीआई बैंक से लिये गए नौ सौ करोड़ रुपए ऋण के मामले में तो प्रवर्तन निदेशालय ने पिछले साल सीबीआई की प्राथमिकी के आधार पर मनी लांड्रिंग निरोधक कानून के तहत माल्या पर आरोप तय किए हैं। भारतीय स्टेट बैंक ने कर्ज वसूली न्यायाधिकरण से माल्या को गिरफ्तार करने और उनका पासपोर्ट जब्त करने की मांग की है जिस पर आगामी अट््ठाईस मार्च को सुनवाई होनी है। न्यायाधिकरण का फैसला जो हो, लेकिन इस प्रकरण ने हमारे देश मेंं बैंकों के डूबते कर्ज की विकराल समस्या, कर्जदारों के आपराधिक रवैये और बैंकिंग प्रणाली में निहित गंभीर खामियों की ओर स्पष्ट इशारा किया है।

इस मामले में अहम सवाल है कि किंगफिशर एयरलाइंस को हजारों करोड़Þ रुपए का कर्ज मंजूर करने से पहले इन सत्रह बैंकों ने कंपनी की माली हालत और मुनाफे की संभावनाओं की गहन पड़ताल की जरूरत क्यों नहीं समझी? अगर पड़ताल की गई थी तो पड़ताल करने वालों की जवाबदेही तय कर उनके विरुद्ध कार्रवाई सुनिश्चित करना आवश्यक है। जो बैंक दो-चार हजार रुपए के मामूली कर्ज के लिए भी गारंटर या रेहन रखने के लिए कुछ मांगते हैं उनका हजारों करोड़ रुपए खैरात की तरह मंजूर कर देना आश्चर्यजनक है। एक तरफ किंगफिशर कंपनी दम तोड़ती रही, उसके कर्मचारी महीनों के बकाया वेतन को तरसते रहे तो दूसरी तरफ माल्या अपनी आलीशान नौकाओं में खूबसूरत मॉडलों के साथ फोटो खिंचाते, मौजमस्ती करते नजर आते रहे। इस सब से बैंक अधिकारी और उनके लेखा परीक्षक आंखें क्यों मूंदे रहे?

इसमें माल्या के राजनीतिक संपर्कों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या राजनीतिक संबंधों को सार्वजनिक धन की लूट की छूट का लाइसेंस बनने देना आपराधिक लापरवाही नहीं है? देश के एक बड़े उद्योगपति निवेशकों की रकम चुकाने में असमर्थ रहने के कारण अरसे से सलाखों के पीछे हैं। किंगफिशर का मामला निवेशकों के पैसे के बजाय सीधे बैंकों के कर्ज अर्थात सार्वजनिक धन को न चुकाने का है। इसकी वसूली में अपेक्षित सख्ती बरतना अन्य बकाएदारों या कर्ज हड़पने वालों को चेताने के लिए भी जरूरी है।