Jansatta Editorial: कोलकाता के बाद अब महाराष्ट्र के बदलापुर में यौन उत्पीड़न के खिलाफ जनाक्रोश उभरा है। वहां के एक स्कूल में दो बच्चियों के यौन उत्पीड़न का मामला सामने आने पर लोगों का रोष फट पड़ा। हालांकि राज्य सरकार ने तुरंत इस मामले को गंभीरता से लेते हुए विशेष जांच दल गठित कर दिया, मगर प्रशासन के रवैए पर प्रश्नचिह्न बना हुआ है। घटना आठ-नौ दिन पहले की है। जब बच्चियों के परिजनों को पता चला कि स्कूल के ही एक कर्मचारी ने उनका यौन उत्पीड़न किया है, तो उन्होंने पुलिस के पास संबंधित मामले की प्राथमिकी दर्ज करानी चाही। मगर पाक्सो अधिनियम का मामला होने के बावजूद उनकी शिकायत लिखने में टालमटोल की गई। इससे लोगों में नाराजगी और बढ़ गई।
यही रवैया कोलकाता मामले में भी देखा गया था। वहां भी प्राथमिकी देर से दर्ज कराई गई। पिछले करीब एक पखवाड़े से देश के विभिन्न हिस्सों से बलात्कार, यौन उत्पीड़न और नृशंस हत्या की घटनाएं रोज ही सामने आ रही हैं। बदलापुर के बाद अकोला में भी छह बच्चियों के यौन शोषण का मामला उजागर हो गया। ऐसी घटनाओं से महिला सुरक्षा को लेकर बने कानूनों और प्रशासनिक सतर्कता पर स्वाभाविक ही सवाल गहरे हुए हैं।
समझा-बुझा कर मामला खत्म करा देती है पुलिस
बलात्कार, डरा-धमका कर किए जाने वाले यौन शोषण, राह चलते छेड़खानी आदि के खिलाफ कड़े कानून हैं, मगर आपराधिक वृत्ति के लोगों में उनका खौफ इसलिए नहीं पैदा हो पा रहा कि उन कानूनों पर संजीदगी से अमल नहीं हो पाता। ऐसे मामलों में पुलिस का रवैया प्राय: टालमटोल का ही देखा जाता है। अगर यौन उत्पीड़न का मामला समाज के निचले कहे जाने वाले वर्ग की महिला से जुड़ा हो, तो पुलिस का प्रयास अक्सर समझा-बुझा कर रफा-दफा करने का होता है।
निर्भया कांड के बाद बनाया गया था पॉक्सो एक्ट
निर्भया कांड के बाद महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और उत्पीड़न से संबंधित कानूनों को काफी सख्त बनाया गया था। बाल यौन उत्पीड़न से जुड़े पाक्सो कानून में तो तत्काल गिरफ्तारी और जमानत तक न मिलने का प्रावधान है। मगर इन कानूनों का ठीक से पालन न हो पाने के कारण ऐसे मामले रुकने का नाम नहीं ले रहे। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज में बढ़ती यौन विकृति और हिंसक वृत्ति की अनेक वजहें हैं, जिनमें से इंटरनेट पर परोसी जाने वाली उत्तेजक और हिंसापूर्ण सामग्री का बड़ा योगदान है। इसलिए ऐसी सामग्री पर रोक लगाने के उपाय करने की मांग उठती रही है। मगर, प्रशासनिक शिथिलता इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार मानी जा सकती है।
हमारे देश में यौन उत्पीड़न के बहुत सारे मामलों में परिजन खुद चुप्पी साध जाते हैं। जो मामले पुलिस तक पहुंचते भी हैं, उनमें दोषियों को सजा दिलाने में तत्परता नहीं दिखाई जाती। जांच और गवाहियों में वर्षों लग जाते हैं। बहुत सारे मामलों में पुलिस का रवैया पक्षपातपूर्ण देखा जाता है। इसलिए चर्चित मामलों में भी न्याय मिलने में लंबा वक्त लग जाता है। करीब बत्तीस वर्ष पहले हुए अजमेर के ऐसे ही यौन उत्पीड़न मामले में अब दोषियों को सजा सुनाई जा सकी है। उसमें डरा-धमका कर सौ महिलाओं का यौन शोषण किया गया था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें लोगों का गुस्सा फूटा, उन्हें लेकर खूब चर्चा हुई, मगर उनमें पीड़िताओं को इंसाफ के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। जब तक ऐसे मामलों में प्रशासनिक जवाबदेही तय नहीं होगी, विकृत मानसिकता के लोगों पर लगाम कसना कठिन बना रहेगा।