कई दिन के ऊहापोह के बाद भाजपा को समर्थन देने के शिवसेना के संकेत के साथ ही महाराष्ट्र में सरकार के गठन की तस्वीर साफ होने लगी है। राज्य में भाजपा और शिवसेना की यह दूसरी सरकार होगी। दोनों दलों की पहली बार साझा सरकार 1995 में बनी थी, पर तब दोनों ने गठबंधन के तौर पर चुनाव लड़ा था। ढाई दशक से चला गठजोड़ तोड़ कर इस बार दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव मैदान में उतरी थीं। नतीजों ने उन्हें फिर साथ आने को मजबूर किया है, क्योंकि सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद भाजपा बहुमत से दूर रह गई, उसे सरकार बनाने के लिए बाईस और विधायकों के समर्थन की जरूरत है। पर इस बार मिलने जा रही सत्ता में दोनों पार्टियों की भागीदारी का रिश्ता बदल गया है। पिछली बार सरकार की अगुआई शिवसेना के पास थी और भाजपा सरकार में कनिष्ठ साझेदार थी। इस बार मुख्यमंत्री भाजपा का होगा। दूसरे स्थान पर आई पार्टी को विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए। अगर शिवसेना इसके लिए तैयार होती, तो दीर्घकाल में उसे फायदा होता। पर उसे सत्ता का मोह छोड़ना गवारा नहीं हुआ। यही नहीं, उसे किसी हद तक झुकना भी पड़ा है। उद्धव ठाकरे कई दिन तक यह जताते रहे कि वे मेल-मिलाप के लिए खुद पहल नहीं करेंगे। पर आखिरकार उन्होंने अपने दूत दिल्ली भेजे और उनके जरिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से सरकार के गठन की बाबत बातचीत शुरू हुई। जो प्रक्रिया मुंबई में चलनी चाहिए थी, वह दिल्ली में चली!

चुनाव प्रचार के दौरान शिवसेना ने भाजपा को अफजल खान की पार्टी कहा था तो भाजपा ने शिवसेना को चूहा। सीधे मोदी पर निशाना साधने में भी ठाकरे ने कोई कसर नहीं छोड़ी और गुजराती बनाम मराठी का द्वंद्व भी उभारने की कोशिश की थी। पर अब दोनों पार्टियां सब कुछ भूल कर पुरानी दोस्ती का हवाला दे रही हैं! यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को भाजपा भ्रष्टाचारवादी कह रही थी, उसी से हाथ मिलाने के संकेत देकर वह शिवसेना पर दबाव बनाने में लग गई। फिर, निर्दलीयों और बहुजन विकास अघाडी और पीजेंट्स ऐंड वर्कर्स पार्टी जैसे छोटे दलों का समर्थन मिलने का दावा करने लगी, ताकि राकांपा और शिवसेना, दोनों यह समझें कि भाजपा उनकी मोहताज नहीं है। दूसरी ओर, भाजपा को सांप्रदायिक मानने वाली राकांपा ने उसे बिना मांगे समर्थन देने की पेशकश की। बहरहाल, खबर है कि प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष देवेंद्र फडणवीस नए मुख्यमंत्री हो सकते हैं। भले इस बारे में औपचारिक एलान विधायक दल की बैठक के बाद हो, पर मुख्यमंत्री पद के लिए उनका नाम तय माना जा रहा है। इसलिए कि फडणवीस मोदी-शाह की भी पसंद हैं और संघ की भी। हरियाणा की कमान मनोहरलाल खट्टर को सौंपे जाने के पीछे भी यही कारण था। कांग्रेस पर भाजपा यह तोहमत मढ़ती रही है कि वह विधायकों की राय से मुख्यमंत्री का नाम तय नहीं करती, आलाकमान की मर्जी थोपती है। पर अब वह खुद उसी ढर्रे पर चल रही है। महाराष्ट्र में नितिन गडकरी और पंकजा मुंडे जैसे कई और नाम मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। भले पंकजा मुंडे अब कह रही हों कि वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं, और गडकरी कह रहे हों कि वे दिल्ली में ही खुश हैं, राज्य की राजनीति में आने का उनका कोई इरादा नहीं है, इस सारे प्रसंग से राज्य में पार्टी की धड़ेबाजी ही उजागर हुई और नए मुख्यमंत्री के चयन को आम सहमति का फैसला कहना मुश्किल होगा।