डिजिटल होती दुनिया में कोई बच्चा जब स्मार्टफोन या कंप्यूटर में मशगूल रहने लगता है, तो उसके अभिभावकों की प्रथम दृष्टया धारणा यही बनती है कि वह तकनीक के उपयोग को लेकर बहुत तीक्ष्ण बुद्धि वाला है। मुश्किल तब होती है, जब तकनीक में बच्चों या किशोरों की यही व्यस्तता उनके विवेक और व्यक्तित्व पर बेहद घातक असर डालती है और कई बार जानलेवा भी साबित होती है।
गौरतलब है कि लखनऊ के गांव धनुवासाढ़ में तेरह वर्षीय एक किशोर को ऑनलाइन गेम की लत लग गई थी और इसी क्रम में वह अपने पिता के खाते में जमा तेरह लाख रुपए हार गया। जब पिता को पता चला तो डर की वजह से किशोर ने आत्महत्या कर ली। यह इस तरह की कोई अकेली घटना नहीं है। ऐसे अनेक मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें आनलाइन गतिविधियों में लिप्त कई बच्चों की पहुंच अपने घर के पैसों तक हो जाती है और गेम में डिजाइन किए गए लालच के जाल में फंस कर वे अपने माता-पिता की मेहनत से कमाए गए पैसे बाजी में हार जाते हैं।
तकनीकी कौशल हासिल करना और अपना ज्यादातर वक्त उसमें खो देना अलग-अलग बातें हैं। आज किशोरावस्था से गुजर रहे ऐसे बच्चों की संख्या बहुत बड़ी हो चुकी है, जो अपनी पढ़ाई-लिखाई से लेकर खेल और मनोरंजन तक के लिए पूरी तरह डिजिटल संसाधनों पर निर्भर होते जा रहे हैं और दोस्ती या खेलों की वास्तविक दुुनिया से कटते जा रहे हैं। इसी क्रम में कोई बच्चा इंटरनेट पर कब किस अवांछित गतिविधियों में अपना वक्त जाया करने लगता है, अभिभावकों को अंदाजा भी नहीं हो पाता। आनलाइन गतिविधियों का लती हो चुका बच्चा जब किसी जानलेवा जंजाल में फंस जाता है, तब जाकर अभिभावक चिंतित होते हैं।
मगर तब तक कई बार देर हो चुकी होती है। सवाल है कि इस तरह के अंजाम तक आने से पहले जिस तरह की स्थितियां बनती हैं, अभिभावकों को उन पर गौर करना, बच्चों को वक्त देना, उन्हें असली दुनिया में वापस लाना जरूरी क्यों नहीं लगता? वहीं सरकार ने भी जुए की तरह खेले जाने वाले आनलाइन खेलों की दुनिया को लगभग खुला छोड़ रखा है। नतीजतन, समाज से लेकर सरकार तक की बहुस्तरीय लापरवाही के शिकार हमारे मासूम हो रहे हैं।