कश्मीर में पिछले कुछ समय से राजनीतिक लोगों और कार्यकर्ताओं पर बढ़ते आतंकी हमले गंभीर चिंता पैदा करने वाले हैं। आतंकी चुन-चुन कर राजनीतिक दल विशेष के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को निशाना बना रहे हैं, ताकि घाटी में किसी भी तरह से राजनीतिक गतिविधियां शुरू न हो सकें। ये हमले सेना, सुरक्षाबलों, पुलिस और प्रशासनिक तंत्र के लिए गंभीर चुनौती बनते जा रहे हैं। पिछले साल पांच अगस्त को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म करने के बाद यह उम्मीद बनी थी कि घाटी में अब आतंकवाद पर लगाम लगेगी और कश्मीरी जनता राहत की सांस लेगी। लेकिन अभी भी जिस तरह आतंकी संगठन सक्रिय हैं, उससे यह लग रहा है कि आतंकियों के पूरी तरह सफाए में अभी वक्त लगेगा।
हालांकि पिछले एक साल में काफी हद तक सेना और सुरक्षाबलों ने आतंकवाद पर काबू पाया है, लेकिन यह चुनौती अभी बरकरार है। घाटी में गांवों के स्तर पर बढ़ती राजनीतिक सक्रियता से आतंकी संगठनों की नींद उड़ी हुई है। इसलिए दहशत पैदा करने के लिए सरपंचों और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया जा रहा है, ताकि सब जगह राजनीतिक कार्यकर्ताओं में खौफ पैदा हो और वे राजनीति से दूर रहें।
यह कोई छिपी बात नहीं है कि घाटी के ग्रामीण इलाकों में आतंकी संगठनों के नेटवर्क की जड़ें ज्यादा मजबूत हैं। इसलिए घाटी से आतंकियों का खात्मा सेना और सुरक्षाबलों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पाकिस्तान से लगी सीमा पर चौबीसों घंटे की कड़ी निगरानी के कारण पिछले कुछ वर्षों के मुकाबले हाल में पाकिस्तान की ओर से होने वाली घुसपैठ में कमी आई है। ज्यादातर घुसपैठिए सीमा पर ही ढेर कर दिए जा रहे हैं। इसका असर यह हुआ है कि घाटी में पहले से मौजूद आतंकी संगठनों के हौसले पर पस्त हुए हैं और अब वे हताशा में हमले कर रहे हैं।
उन्हें अब ज्यादा मदद नहीं मिल पा रही है। ऐसे में आतंकी स्थानीय लोगों को डरा-धमका ही दहशतगर्दी फैला रहे हैं। अक्सर यह सुनने में आता है कि आतंकी हमला कर भाग निकले। जाहिर है, स्थानीय लोगों की मदद से ही कहीं न कहीं पनाह लेते हैं। घाटी में जिस तेजी से माहौल बदल रहा है, उसमें अब बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो आतंकियों के खिलाफ है। जो लोग पनाह देते भी हैं, वे या तो धन के लालच में या फिर मौत के खौफ की वजह से, कि कहीं आतंकी उन्हें मार न डालें।
घाटी में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने का नतीजा यह हुआ है कि डर के मारे लोग अपने संगठन को छोड़ कर रहे हैं। इससे आतंकियों के मंसूबों को बल मिलेगा। इसलिए घाटी को आतंकवादियों से मुक्त कराने के लिए सेना और सुरक्षाबलों के अनवरत अभियान की जरूरत तो है ही, साथ ही विकास और राजनीतिक गतिविधियों में तेजी लानी होगी। साल 2018 में कश्मीर में पंचायत चुनावों की शुरूआत कर इस दिशा में बड़ी पहल की गई थी।
यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि पंचायत स्तर से ही काम करके ग्रामीणों के भीतर सरकार, उसके कार्यक्रमों और उसकी नीतियों के प्रति भरोसा पैदा किया जा सकता है। ग्रामीण इलाकों की सुरक्षा भी बड़ा मुद्दा है। अगर ग्रामीणों को आतंकियों का खौफ नहीं रहेगा, तो वे खुल कर राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदार बन सकेंगे। विकास के कार्यक्रम ही घाटी के लोगों का मन बदल सकते हैं। यह तो तय है कि आतंकी अभी शांत नहीं बैठने वाले। लेकिन सरकार, सेना, सुरक्षाबलों और जनभागीदारी से एक न एक दिन तो आतंकी हारेंगे ही!