वहां के उपराज्यपाल और हरियाणा के मुख्यमंत्री ने इससे संबंधित एक दृष्टिपत्र जारी किया। बताया गया है कि इस कदम से विभन्न सामाजिक योजनाओं के लाभार्थियों का चयन करना आसान होगा। इस पहचान-पत्र में हर परिवार का एक विशिष्ट कोड होगा। जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने दावा किया है कि इसमें सूचनाओं की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम होगा।

मगर भाजपा को छोड़ कर सभी राजनीतिक दलों ने इस योजना का विरोध किया है। पूछा है कि जब पहले से इसी तरह का एक पहचान-पत्र आधार कार्ड के रूप में मौजूद है, तो अलग से एक पहचान-पत्र की क्या आवश्यकता है। फिर सरकार की व्यक्तिगत सूचनाओं की सुरक्षा के मामले में विफलता को भी गहरे रेखांकित किया जा रहा है।

हालांकि सुरक्षा की दृष्टि से जम्मू-कश्मीर बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। वहां आतंकवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाना चुनौती है। अक्सर सुरक्षाबलों और दहशतगर्दों के संघर्ष में वहां के निर्दोष नागरिक भी शक के दायरे में आ जाते और कई बार मारे जाते हैं। ऐसे में अगर डिजिटल पहचान का कोई पुख्ता और व्यावहारिक तंत्र हो, तो सुरक्षा मामलों में भी आसानी हो सकती है।

मगर जम्मू के लोग इस पहचान-पत्र को स्वीकार भी कर लें, तो कश्मीर के लोगों को इसके लिए राजी करना आसान नहीं होगा। दरअसल, पिछले आठ-नौ सालों में केंद्र और घाटी के लोगों के बीच अविश्वास लगातार गहरा होता गया है। खासकर जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता समाप्त होने के बाद वहां भरोसे की जमीन दरक चुकी है।

ऐसे में विशिष्ट पहचान-पत्र के लिए डिजिटल डेटा इकट्ठा करने की योजना को वहां के लोग स्वाभाविक ही शक की नजर से देखने लगे हैं। चीन में इस तरह जैविक सूचना एकत्र करने के बाद जिस तरह आंदोलनों आदि के समय प्रशासन ने लोगों को प्रताड़ित करना शुरू किया, उसके उदाहरण अब सबको पता हैं।

ऐसे में केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर प्रशासन के लिए लोगों को यह समझाना बहुत मुश्किल होगा कि वास्तव में उनका इरादा ई-गवर्नेंस को प्रभावशाली और सामाजिक योजनाओं को वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंचाना है। केंद्र ने आपराधिक मामलों में न्याय की गति तेज और सुगम बनाने के मकसद से भी अपराधियों का जैविक विवरण डिजिटल रूप में इकट्ठा करने का प्रस्ताव रखा था, मगर उसका विपक्षी दलों ने पुरजोर विरोध किया था।

दरअसल, लोगों के जैविक आंकड़े इकट्ठा करना उनकी निजता का हनन माना जाता रहा है। इसीलिए शुरू में आधार कार्ड का भी विरोध हुआ था। अब तो अनेक उदाहरण हैं, जब लोगों के निजी आंकड़े बड़े पैमाने पर बाजार में बेच दिए गए। इसलिए भी कश्मीर के लोग शायद ही इसके लिए तैयार हों। फिर सबसे बड़ी अड़चन है कि वहां के लोग अब भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि वे भारतीय शासन के अधीन हैं। वे खुद को स्वतंत्र मानते हैं। दरअसल, सरकार और वहां के लोगों के बीच लंबे समय से संवाद रुका हुआ है।

आतंकवाद खत्म करने के नाम पर वहां हथियार का उपयोग अधिक होता है, जिसका शिकार वहां के बहुत सारे बेगुनाह लोग हो जाते हैं। तमाम विशेषज्ञ राय देते रहे हैं कि अगर कश्मीर में अमन कायम करना है, तो पहले वहां के लोगों से बातचीत का सिलसिला शुरू करना चाहिए। जब तक वहां के लोगों में भरोसा नहीं बनेगा कि सरकार सचमुच उनके हित में कदम उठा रही है, तब तक विशिष्ट पहचान-पत्र योजना की कामयाबी का दावा करना मुश्किल बना रहेगा।