कानून के शासन की यह प्राथमिक जवाबदेही रही है कि अपराध पर नियंत्रण के लिए सभी स्तर पर यथोचित कदम उठाए जाने चाहिए। इसी के समांतर यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि महज आशंका के आधार पर कानून का सहारा लेकर किसी निर्दोष को परेशान करने पर सख्ती से रोक लगे। मगर ऐसे मामले अक्सर सामने आते हैं, जिसमें पुलिस सिर्फ आरोप या शक के आधार पर भी किसी को कानून के कठघरे में खड़ा कर देती है।

इसके बाद शुरू होती है अदालती सुनवाई की एक लंबी और जटिल प्रक्रिया, जिसके संजाल से निकलना कई बार लोगों के लिए बेहद मुश्किल होता है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में ईसाई मत में ‘सामूहिक धर्म परिवर्तन’ का आरोप लगा कर कानून के कठघरे में खड़ा किए गए लोगों के खिलाफ दर्ज कई प्राथमिकियों को रद्द कर दिया। अदालत ने साफ कहा कि आपराधिक कानून निर्दोष लोगों को परेशान करने का साधन नहीं हो सकता।

दरअसल, फतेहपुर में एक विश्वविद्यालय के कुलपति सहित कई अन्य लोगों के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी में धर्मांतरण कराने का आरोप लगाया गया था। मगर अदालत ने पाया कि प्राथमिकी में कानूनी और प्रक्रियागत खामियां थीं और विश्वसनीय सामग्री का अभाव था। सवाल है कि अगर इस बुनियाद पर मुकदमे की सुनवाई होती तो कैसा फैसला आता? इस संबंध में अदालत ने उचित टिप्पणी की है कि ऐसे मुकदमे को जारी रखना ‘न्याय का उपहास’ होगा!

‘यह कानून निर्दोषों को परेशान करने का हथियार नहीं’, सुप्रीम कोर्ट ने यूपी में धर्म परिवर्तन के तहत दर्ज कई FIR रद्द कीं

यह छिपा नहीं है कि किसी कानून का सहारा लेकर पुलिस अगर एक निर्दोष को कठघरे में खड़ा कर देती है, तो उसके जीवन की क्या स्थिति हो जाती है। हमारे समाज में ज्यादातर लोगों को कायदे-कानून की जटिल प्रक्रिया और बारीकियों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं मालूम होता है, लेकिन अगर वे अपनी किसी चूक या फिर किसी की ओर से निशाना बनाए जाने के बाद कानूनी जटिलताओं में फंस जाते हैं, तो उसके बाद उनका जीवन-संघर्ष मुकदमों का सामना करते हुए लंबे समय तक जारी रहता है।

निश्चित रूप से अपराध से निपटने के लिए बनाए गए सख्त कानून समय की जरूरत हैं, लेकिन किसी भी स्थिति में अगर वे कानून किसी निर्दोष के उत्पीड़न और उसे परेशान करने के काम में लाए जाते हैं, तो यह एक तरह से कानून को ही ताक पर रखने जैसा होगा। एक स्वस्थ लोकतंत्र में अपराध पर काबू पाने के मकसद से बनाए गए कानूनों को निर्दोष लोगों के उत्पीड़न का साधन बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। अगर इसका ध्यान नहीं रखा जाता है, तो मुकदमा चलाने वाली एजंसियों को पूरी तरह से अविश्वसनीय सामग्री के आधार पर अपनी मर्जी और कल्पना के आधार पर मुकदमा शुरू करने की छूट मिल सकती है।

ऐसी खबरें अक्सर सामने आती रहती हैं, जिनमें महज दुराग्रह या द्वेष की वजह से किसी व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया जाता है। कई बार खुद पुलिस भी ऐसे मामलों के वास्तविक आधार पर गौर नहीं करती और संवेदनशील कानूनी प्रावधानों का सहारा लेती है। ऐसे में एक ओर अपराध से संबंधित कानूनों का उद्देश्य विफल होता है, उसकी साख प्रभावित होती है, वहीं नाहक ही किसी निर्दोष व्यक्ति का जीवन बाधित होता है। यह किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का भी हनन है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि किसी कानून का बेजा इस्तेमाल उसकी अहमियत को कम करता है।