देश में हर व्यक्ति को अपनी भाषा के चयन की आजादी है। जाहिर है कि कोई भी व्यक्ति उसी भाषा को तरजीह देगा, जो उसके लिए सहज होगी। हालांकि, बदलते वक्त के साथ जीवन में बढ़ती जरूरतों के हिसाब से एक से ज्यादा भाषाएं सीखने के महत्त्व को भी नकारा नहीं जा सकता। मगर, भाषा को लेकर विवाद की गुंजाइश क्यों पैदा हो रही है? किसी एक भाषा के लिए दूसरी का विरोध करना कितना तर्कसंगत है, यह सवाल फिर से गूंजने लगा है।

दक्षिण के कुछ राज्य हिंदी थोपे जाने का आरोप लगाते हुए इसके खिलाफ फिर मुखर होने लगे हैं। तमिलनाडु के बाद अब महाराष्ट्र में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 के त्रिभाषा सूत्र का विरोध हो रहा है। जबकि, केंद्रीय गृहमंत्री ने साफ किया है कि हिंदी किसी भाषा की विरोधी नहीं है, बल्कि यह सभी भारतीय भाषाओं की सखी है और देश में किसी विदेशी भाषा का विरोध नहीं होना चाहिए।

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दरअसल, नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में राज्यों में तीन भाषाएं पढ़ाए जाने की बात कही गई है। इनमें भाषाओं का चयन राज्यों, क्षेत्रों और निश्चित रूप से स्वयं छात्रों की पसंद के आधार पर तय करने की बात कही गई है। बशर्ते तीन भाषाओं में से कम से कम दो भारत की मूल भाषाएं हों। इस नीति के आधार पर महाराष्ट्र सरकार ने हाल में कक्षा एक से पांचवीं तक तीसरी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाए जाने का फैसला किया है। शिवसेना (उद्धव) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) इसका पुरजोर विरोध कर रही हैं।

वहीं, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार) के अध्यक्ष शरद पवार का कहना है कि हिंदी किसी भी राज्य पर थोपी नहीं जानी चाहिए। यह बात सही है कि किसी भी राज्य, समाज या व्यक्ति को कोई एक भाषा अपनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है, लेकिन हिंदी के प्रति एक खास तरह के पूर्वाग्रह का क्या औचित्य हो सकता है? अगर कोई अपनी इच्छा से किसी भाषा का चयन करना चाहे तो उसे रोकना न्यायसंगत नहीं होगा। विद्यालयों में भाषा के चयन का फैसला विद्यार्थियों की रुचि के आधार पर हो तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है।