कश्मीर में पिछले कुछ समय से, बाहरी राज्यों से गए मजदूरों पर, लक्षित आतंकी हमलों का जो दौर शुरू हुआ है और उसमें जैसी निरंतरता देखी जा रही है, वह अब सरकार और वहां तैनात सुरक्षा बलों के लिए एक जटिल चुनौती बन रही है। गौरतलब है कि शुक्रवार को जम्मू-कश्मीर के शोपियां जिले में एक प्रवासी मजदूर का शव मिला था। रोजी-रोटी की तलाश में बिहार से वहां गए मजदूर को दो गोलियां मारी गई थीं। अनुमान है कि दहशतगर्दों ने टारगेट अटैक की अपनी रणनीति के तहत उस मजदूर की हत्या कर दी।
यों, यह कोई पहली घटना नहीं है, मगर सच यह है कि हाल के वर्षों में सुरक्षा बलों के शिविरों से लेकर प्रवासी मजदूरों तक के घरों पर हमला करने के पीछे उनकी हताशा दिखती है। हालांकि आतंकवादी गिरोहों से किसी तरह के विवेक की उम्मीद करना बेमानी है, मगर हैरानी की बात यह है कि बेहद कमजोर तबके के ऐसे लोगों को भी मार डालने में वे नहीं हिचकते, जो महज रोजी-रोटी की उम्मीद में अपनी जमीन से उखड़ कर वहां पहुंचे होते हैं।
आतंक की नई प्रकृति आई सामने
जम्मू-कश्मीर में टारगेट अटैक के रूप में आतंकी हमलों की यह नई प्रकृति है, जिसमें आतंक का दायरा फैल रहा है। निश्चित रूप से यह चिंता की बात है और सुरक्षा बलों के साथ सरकार को आतंकवाद के इस नए चेहरे से निपटने के लिए अलग रणनीति पर काम करने की जरूरत है। इस समस्या के जटिल होते जाने की मुख्य वजह यह रही है कि इसके तार सीमा पार के ठिकानों से संचालित संगठनों से जुड़े हैं। वहीं से मिलने वाले संरक्षण और पोषण का नतीजा है कि कभी सुरक्षा बलों के शिविर पर हमला करके, तो कभी किसी प्रवासी मजदूर की हत्या कर आतंकी अपनी मौजूदगी दर्शाना चाहते हैं।
हाल में हुए विधानसभा चुनावों के बाद वहां एक चुनी हुई सरकार ने काम करना शुरू कर दिया है और उसके बाद यह स्वाभाविक उम्मीद जगी है कि वह अपनी सीमा में आतंकवाद और खासतौर पर टारगेट अटैक पर काबू पाने के मामले में सख्त कदम उठाएगी। यही उसकी कसौटी भी है कि इस दिशा में वह क्या कर पाती है।