पश्चिम बंगाल सरकार ने बलात्कार के मामलों में दोषियों को कड़ी सजा दिलाने के लिए मौजूदा कानून में संशोधन कर नया विधेयक पारित कर दिया है। इसमें मामलों की जल्द जांच और त्वरित न्याय दिलाने के साथ-साथ दोषियों को मृत्युदंड की सजा का प्रावधान भी किया गया है। कोलकाता के आरजी कर कालेज एवं अस्पताल में एक महिला चिकित्सक के बलात्कार और हत्या के बाद प्रदेश सरकार ने यह कदम उठाया है।

ऐसा पहली बार नहीं है जब किसी सरकार ने महिला सुरक्षा से संबंधित मौजूदा कानून में संशोधन किया है। इससे पहले भी केंद्रीय और राज्य स्तर पर संशोधन के जरिए कानूनों को कड़ा करने के प्रयास किए गए हैं। मगर, सवाल है कि क्या इन कोशिशों के बावजूद बलात्कार जैसे घृणित कृत्यों में कमी आई है?

सरकार ने गैर जमानती बनाया गया है कानून

पश्चिम बंगाल के नए विधेयक में महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों को संज्ञेय और गैर-जमानती बनाया गया है। राज्य सरकार का दावा है कि बलात्कार से संबंधित केंद्रीय कानून में कुछ कमियां रह गई हैं, इसलिए विधानसभा में संशोधित विधेयक पारित किया गया। पर क्या कड़े कानून बना देने भर से महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर अंकुश लग पाएगा? दिसंबर 2012 में निर्भया कांड के बाद महिला सुरक्षा संबंधी केंद्रीय कानून में सख्त प्रावधान किए गए थे। यहां तक कि जघन्य अपराधों को अंजाम देने वाले किशोरों की उम्र सीमा को लेकर भी किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन किया गया था।

नवंबर 2019 में हैदराबाद में एक युवती के बलात्कार और हत्या के बाद आंध्र प्रदेश सरकार ने भी ऐसे मामलों में सख्त सजा का प्रावधान करने के लिए विधानसभा में संशोधित विधेयक पारित किया था। इन सारी कोशिशों के बावजूद राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2012 से पहले हर वर्ष बलात्कार के औसतन पच्चीस हजार मामलों की तुलना में 2013 में यह आंकड़ा तैंतीस हजार और 2016 में उनतालीस हजार के करीब पहुंच गया।

इससे साफ है कि सिर्फ सख्त कानून बना देने से किसी अपराध पर लगाम नहीं लगाई जा सकती। जरूरत है तो इन कानूनों को सख्ती से लागू करने और लापरवाही बरतने वालों की जवाबदेही तय करने की।